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इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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हस्तक्षेप

विजय लक्ष्मी

भीष्म साहनी

साहित्यकार के कृतित्व को उसके जीवनानुभवों से पृथक करके नहीं आँका जा सकता. नि:संदेह साहित्यकार परिस्थिति एवं परिवेश की उपज होता है. 8 अगस्त 1915 में जन्में नाटक, निबन्ध, कहानी, उपन्यास, अभिनय, अनुवाद जैसी महत्त्वपूर्ण विधाओं में पारंगत भीष्म साहनी बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न ऐसे ही साहित्यकार थे, जिन्होंने आंखों देखे समाज को अपने साहित्य में बारीकी से उकेरा है. उनके समय में भारतीय समाज, हिन्दू-मुस्लिम दंगों, धर्म-आडम्बरों, जात-पाँत के भेदों, सांस्कृतिक विभिन्नताओं, पूंजीपति-निर्धन जैसी सामाजिक विद्रूपताओं से युक्त था तथा ब्रिटिश शासन की नीति भी भेदभावपूर्ण थी. उन्होंने अपने लेखन में इन स्थितियों का जमकर खुलासा किया और आम-जन को वास्तविकता से अवगत कराने की पूरी कोशिश भी.

भीष्म साहनी जिस परिवेश में रहे उसका पूर्ण प्रभाव उनके लेखन पर दिखाई देता है. प्रेमचन्द, यशपाल, मोहन राकेश जैसे साहित्यकारों का उन पर अवश्य ही प्रभाव था, यही नहीं उनका व्यक्त्तित्व सच्चे अर्थों में मार्क्सवाद से भी प्रभावित रहा. उन्होंने समाज में विद्यमान स्त्री-पुरूष के मध्य असमानता को विभिन्न स्थितियों एवं सुझावों से भरने की सप्रयोजन वकालत की तथा अपनी रचनाओं में अन्याय के खिलाफ जमकर आवाज भी उठाई, चाहे वह उनके घर का आर्यसमाजी वातावरण रहा हो य देश-विभाजन की पीड़ा. भीष्म साहनी ने इन सभी घटनाओं को अपने कथा साहित्य में विस्तृत रूप प्रदान किया है. इसके साथ ही जीवन-जगत के महत्त्वपूर्ण आयामों को विस्तृत धरातल पर देखने-समझने का सुखद अवसर प्रदान करने वाली उपन्यास विधा के क्षेत्र में भी उनका विशेष योगदान है. उन्होंने 'झरोखे' (1967), 'कड़ियाँ' (1970), 'तमस' (1973), 'बसन्ती' (1980), 'मय्यादास की माड़ी' (1988), 'कुन्तो' (1993), 'नीलू, नीलिमा, नीलोफर' (2000), उपन्यासों के माध्यम से विभिन्न प्रकार की समस्याओं को उठाया है.

'झरोखे' उपन्यास में एक बालक के माध्यम से (जो अपने समझ घटने वाली छोटी-छोटी घटनाओं को वर्णित करता है) मध्यमवर्गीय परिवेश की दु:ख-तकलीफों का अंकन हुआ है जिसमें धार्मिक एवं सामाजिक विसंगतियों को मुख्य रूप से अभिव्यक्ति मिली है. ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, धर्म-भेद, कर्मकाण्ड, व्रत तथा नौकरशाही जैसी समस्याओं का उल्लेख भी दृष्टव्य है. इस प्रकार के परिवेश में जी रही स्त्री की शारीरिक और मानसिक व्यथा की ओर लेखक की दृष्टि गई है जो मौलिक अधिकारों से युक्त जीवन से हीन है. बच्चों को सलामती की दुआ जपती रहती. माँ-पिताजी से झगड़ा बढ़ने पर अपनी तकलीफ को इस रूप में प्रकट करती है, " मैंने तुम्हारे साथ कौन सा सुख पाया है? तुम मुझे सदा कलपाते रहे हो?... हे भगवान मुझे उठा ले... अंतत: धीरज धरकर बैठ जाती है.
घर में काम वाला नौकर तुलसी जब पढ़ना चाहता है तो उसका कड़ा विरोध किया जाता है, साथ ही चोरी का इल्जाम भी लगाया जाता है.
"यहाँ क्या छिपा रखा है? बता क्या है? अब तू चोरी भी करने लगा है... नौकरों को पढ़ाई से क्या मतलब? जो पढ़ना-मरना था तो यहाँ क्यों आया? "

'कड़ियाँ' आधुनिक समाज के बदलते पारिवारिक और वैवाहिक जीवन-मूल्यों की ओर संकेत करने वाला ऐसा उपन्यास है जिसमें स्त्री और पुरुष को जीते नहीं बल्कि उसे बोझ की तरह ढोते हुए प्रतीत होते हैं. महेन्द्र एक फैशनपरस्त, आशिक-मिजाज और आधुनिक सोचवाला व्यक्ति है, " प्रत्येक स्त्री अपने अनुरूप ही पुरुष के व्यक्तित्व में से अपने लिए एक गुण खींच लेती है. सुषमा के साथ बैठता तोमन कामुकता की ओर दौड़ता था, मिसेज भगत के साथ बैठता तो लगता जैसे संसार खिल उठा है.. .. " जबकि प्रमिला धार्मिक विचारों वाली घरेलू और पतिव्रता स्त्री है जिससे महेन्द्र उसका सात वर्षीय लड़का छोड़कर बोर्डिंग में डाल देता है और अपने घर से भी निकाल देता है. जिसकी वजह से वह पागल तक हो जाती है और अपने दूसरे बच्चे को महेन्द्र द्वारा अस्वीकार करने के बावजूद खुद पालती है तथा अपने पैरों पर खड़े होकर दिखाती है.

'तमस' राजनीतिक क्षेत्र से जुड़े व्यक्तियों की स्वार्थी प्रवृत्ति और देश विभाजन के कारण हिंदू-मुस्लिम समुदाय के मध्य मार-काट, दंगा-फ़साद की घटनाओं के मद्देनजर धार्मिक कट्टरता और बेबस स्त्रियों की मार्मिक, संवेदनशील स्थिति पर ध्यान इंगित करने वाला सशक्त उपन्यास है. दंगे की शुरूआत मुरादाली द्वारा एक मरे हुए सुअर की गुप्त मांग के द्वारा होती है. नत्थू सुअर को मारकर मुरादाली को देता है और वह मृत सुअर का इस्तेमाल दंगा भड़काने के लिए मस्जिद के बाहर डालने के रूप में करता है. मुस्लिम होने के कारण किसी का ध्यान भी उसकी ओर नहीं जाता. इस संपूर्ण प्रक्रिया में ब्रिटिश शासकों का पूरा हाथ होता है, "हमारे सलोत्तरी साहब को एक मरा हुआ सुअर चाहिए,. .. इधर इलाका मुसलमानी है. किसी मुसलमान ने देख लिया तो लोग बिगड़ेंगे. तुम भी ध्यान रखना." इन नृशंस दंगों के दौरान स्त्रियों पर पड़ने वाले असहनीय दुष्प्रभावों का बहुत ही मार्मिक चित्रण हुआ है जिनसे सत्ता वर्ग अनभिज्ञ बना रहता है, "अगर प्रजा आपस में लड़े तो शासक को किस बात का खतरा है." प्रभावस्वरूप गुरुद्वारा में अपनी सुरक्षा को इकट्ठी हुई सभी स्त्रियाँ अंतत: आत्म-सम्मान हेतु मरना सर्वोपरि मानती हैं, "सबसे पहले जसबीर कौर कुएँ में कूद गई... देखते ही देखते दसियों औरतें अपने बच्चों को लेकर कुएँ में कूद गईं."

'बसंती' उपन्यास में निम्नवर्गीय समाज से संबंधित मजदूर वर्ग के स्त्री-पुरुष की जिंदगी और विभिन्न प्रकार की समस्याओं का उल्लेख हुआ है. सरकार को समाज के इस अति निम्न वर्ग के प्रति कोई सरोकार नहीं है तभी इनकी छोटी-मोटी झोंपड़ियों को तोड़ दिया जाता है, जिससे इनकी बस्ती उजड़ जाती है, जो पारंपरिक वेशभूषा, कलाकृति, चित्रकारी, अलग-अलग प्रकार के रहन-सहन के तौर-तरीक़ों से युक्त मिली-जुली संस्कृति की झलक के रूप में हमारे सामने आती है. इन्हीं सब स्त्री-पुरुषों में मुख्य पात्र बसंती है जो इसी उजड़ते-बसते परिवेश की संतान है और हर स्थिति में से गुजरकर दिखा देने वाली, हार न माने वाला जीवंत चरित्र है. बसंती का पिता उसका सौदा साठ वर्षीय बुलाकीराम से कर देता है, वह दोनों से बचकर भाग निकलती है और घरों में चौका-बर्तन करने का काम करने लगती है फिर उसकी मुलाकात दीनू से होती है जो मेस में खाना बनाने का काम करता है. बसंती उसे चाहने लगती है और उसके साथ भाग जाती है तथा उसके साथ रहती है. उसे पता चलता है कि पहले से शादीशुदा है, वह जिसे शादी समझती है वह दीनू के लिए केवल खिलवाड़ होता है, वह भी उसे अपने दोस्त बरड़ू को बेचकर गाँव लौट जाता है फिर वह गर्भवती हालत में खुद को अपने पिता, बुलाकी और बरडू से बचती-बचाती फिरती है. अकस्मात दीनू से मुलाकात होने पर वह फिर से उसकी बीवी सहित उसके साथ रहती है और घर का पूरा खर्च भी अकेले ही उठाती है. फिर भी दीनू अपनी बीवी सहित गाँव लौट जाता है, बसंती को पता है, इस बार वह नहीं लौटेगा. अंतत: वह अपने बेटे के साथ अकेले दौड़ते-भागते इसी परिवेश में रह जाती है और संपूर्ण व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगा जाती है.

'मय्यादास की माड़ी' उपन्यास लाहौर और पंजाब के कस्बाई जीवन और रहन-सहन की कहानी है. इसमें उस कालविशेष का वर्णन है. जब सिक्ख अमलदारी खत्म होने जा रही थी और ब्रिटिश सत्ता अपने साम्राज्य की वृद्धि हेतु विभिन्न साजिशों का सहारा ले रही थी. इस उपन्यास में घरेलू स्त्रियों का वर्णन अधिक हुआ जो संस्कारों, परम्पराओं, रीति-रिवाजों में जकड़ी हुई हैं. वहीं रुक्मिणी जैसी स्त्री भी है जो किसी दकियानूसी मान्यता को दरकिनार करते हुए घर की चारदीवारी के बाहर कदम निकालकर शिक्षा ग्रहण करती है और शिक्षिका बन जाती है. भले ही उसकी राह में अड़चनें डालने की अनेक कोशिशें की गई हों. प्रस्तुत उपन्यास में अशिक्षा कामुक प्रवृत्ति, अंधविश्वास, स्त्रियों की असुरक्षा, भाग्यवाद जैसी विद्रूपताओं का प्रमुख रूप से देखने को मिलती है. मय्यादास का छोटा भाई गोकुलदास तीन लड़कियों को जन्म देने के जुर्म में अपनी पत्नी को उसके मायके रवाना कर देता है और रखैल रख लेता है. इस प्रकार समाज में स्त्री-पुरुष के मध्य विद्यमान भेद की नीति का विस्तृत रूप से विश्लेषण हुआ है.

'कुन्तो' मानवीय रिश्तों के बदलते रंगों, उतार-चढ़ावों, पति-पत्नी के आपसी रिश्तों की कमजोरी का ताना-बाना प्रस्तुत करता है, जिसमें उनकी मानसिक सहनशक्ति दम तोड़ती नजर आती है. जयदेव अपनी मौसेरी बहन सुषमा को चाहता है जिसका पता शादी के बाद कुन्तो को चलता है. जयदेव नाखुश रहता है ना अपनी पत्नी कुन्तो को रहने देता है. वह सुषमा की शादी गिरीश से करवाता है जो स्वयं अपनी रिश्ते की बहन के चक्कर में पहले से ही होता है, "यहाँ पर जो गिरीश दे, जितना दे, सुषमा को वही ग्रहण करना था, स्वीकार करना था." लेकिन यहाँ पुरुष की बेवफाई, बेरुखी का शिकार अधिकतर स्त्रियाँ ही हुई हैं. कुन्तो का बड़ा भाई तेरह साल तक अपनी बीवी व बेटी की खबर नहीं लेता और विदेश में बैठा अय्याशी करता रहता है. दूसरा भाई धनंजय जो डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए बाहर जाता है, किसी और स्त्री के चक्कर में पड़कर लौटता है और अपनी पत्नी थुलथुल की उपेक्षा करता है जो अंतत: जल मरती है. कुन्तो भी जयदेव के व्यवहार से आहत हो धीरे-धीरे अपनी जीवनलीला समाप्त करने की कोशिशें करती रहती है, "कुन्तो के पेट में बल पड़ने लगे थे और रोग ने उसे जकड़ लिया था.. .. वह ताल का जल पीने लगी थी..." अचार खाने से घंटों खाँसते रहने के बावजूद भी वह उसे खाती है. अंत में उसकी भी मृत्यु हो जाती है. सुषमा की माँ जो उसके पिता से झगड़ा होने पर खुद को दो-तीन दिन तक कोठरी में बंद कर लेती है, मौन व्रत रख लेती है. सभी घटनाएँ पुरुष द्वारा प्रताड़ित, शोषित स्त्री की असहनीय दास्तान को बयान करती हैं.

'नीलू, नीलिमा, नीलोफर' में धार्मिक भेदभाव और सांस्कृतिक भिन्नता की समस्या का कुशल रेखांकन किया गया है. इस उपन्यास में हिंदू-मुसलमान का भेद और इसके अंदर पिसते प्रेमियों की प्रेम-त्रासदी की ओर संकेत किया गया है. धर्म-भेद की वजह से इन्हें एक-दूसरे से जुदा करने के षडयंत्र रचे जाते हैं, जो समाज में आज भी विद्यमान हैं. नीलू अथवा नीलोफर सुधीर से प्रेम करती है और भागकर विवाह कर लेती है लेकिन शादी होने के बाद भी उसका भाई हामिद माँ की बीमारी का झूठ बोलकर उसे वापस घर ले आता है और उसका गर्भपात करवा देता है व जबरन बीवी बच्चों वाले मुस्लिम व्यक्ति से उसका विवाह तय करता है. इसी तरह नीलिमा अल्ताफ़ को चाहती है लेकिन उसकी दादी को यह बात पसंद नहीं आती, "अक्ल से काम लो, बेटा.. .. तुम्हारी बेटी को सारी उम्र काटनी है. ब्याह होने की देर है कि हमारी बेटी पर्दे में चली जाएगी... मुसलमानों में दो-दो ब्याह होते नहीं हैं क्या.. .." और दादी व पिता की मर्जी से सुबोध से विवाह करने हेतु विवश होती है. विवाहित जीवन में सुखी न होने के कारण "जल मरूँगी तो सुबोध की पकड़ से बाहर हो जाऊँगी, जल मरूँगी तो डैडी को भी मेरी चिंता से छुटकारा मिलेगा.. .." वह सोचती है और "उसने साड़ी का लहराता पल्लू जलती मोमबत्ती के ऊपर डाल दिया था, और क्षणभर में ही आग का भभूका उठा था." इसके बाद भी वह बच जाती है और पहले से ज्यादा आत्मविश्वास से भरपूर होती है.

इस प्रकार भीष्म साहनी के उपन्यासों में स्त्री-जीवन के तमाम महत्त्वपूर्ण प्रश्नों और समस्याओं को स्वर मिला है. उन्होंने स्त्री को उसके पूरे सामाजिक संदर्भों में देखने में दिलचस्पी ली है. भीष्म जी के सभी उपन्यासों में स्त्री चरित्रों में संघर्ष और अपने हक के प्रति आवाज उठाने की भावना मुख्य रूप से मुखरित हुई है. 'कड़ियाँ' की प्रमिला और सुषमा (जो अपने अधिकारों के लिए चुप नहीं बैठती). " अगर मुझसे ऊब गए हो तो मेरे पास नहीं आया करो. मैं यों भी शीघ्र ही यहाँ से चली जाऊँगी. "' " इस घर पर कहर टूटेगा. तुम अपनी पत्नी को मारते हो. हमारे घर में मेरी माँ कभी नहीं रोई थी. तुम बहुत बुरे आदमी हो. तुमने बच्चों के सामने मुझे पीटा है, तुम बच्चे के सामने मुझे रुलाते हो, बच्चा क्या सीखेगा? " तमस' की संघर्षशील स्त्रियाँ (जो आत्मसम्मान हेतु मरना अच्छा समझती हैं), 'बसन्ती' की बसन्ती भीष्म साहनी के सभी उपन्यासों की तुलना में सबसे विरल व्यक्तित्व वाली स्त्री है जो हार न मानने वाली निर्भीक, परिश्रमी संघर्षशील एवं आशावादी चरित्र है. वहीं 'मय्यादास की माड़ी' की रूक्मो 'सामन्ती' ससुर धनपतराय की इच्छा के विरूद्ध शिक्षा प्राप्त कर शिक्षिका बन जाती है. ऐसे ही 'कुन्तो' की सुषमा अकेले शांतिनिकेतन जाकर रहती है, हालाँकि वह अपने मकसद में कामयाब नहीं होती. 'नीलू, नीलिमा, नीलोफर' की नीलोफर घर से भागकर प्रेम विवाह करती है, उसका भाई उसे माँ की बीमारी का झूठ बोलकर वापस घर ले आता है और घर में कैद करके रखता है. उसकी माँ जो उसकी विरोधी है कैद से आजाद कराने में उसकी सहायिका बनती है. भीष्म जी के उपन्यासों में हमें एक तरफ तो ऐसी संघर्षशील और आशा-वादी स्त्रियाँ दिखाई देती हैं जो परिस्थितियों के सामने झुकती नहीं हैं पर दूसरी ओर कुछ ऐसी स्त्रियाँ भी दिखाई देती हैं जो समस्याओं का सामना नहीं कर पातीं और उनका समाधान आत्महत्या में खोजती हैं. उदाहरण के लिए, 'कुन्तो' उपन्यास की कुन्तो एवं थुलथुल चरित्रों को देखा जा सकता है.

भीष्म साहनी के उपन्यासों का दायरा व्यापक है. इस दायरे में बहुत प्रकार के समाज शामिल हैं. यही कारण है कि उनके उपन्यास साहित्य में अलग-अलग प्रकार के धार्मिक पाखण्डों, धार्मिक रीति-रिवाजों, संस्कारों को दर्शाता हुआ और उन पर प्रश्न चिन्ह लगाता हुआ, व्यंग करता हुआ एक ऐसा समाज हमें दिखाई देता है जिसकी ओर पाठक का ध्यान अनायास ही खींच जाता है. दरासल भीष्म साहनी के उपन्यास स्त्री-जीवन की वास्तविक स्थितियों का कच्चा चिट्ठा खोलकर हमारे सामने रख देने वाले हैं. इन उपन्यासों में उस समाज पर व्यंग्य किया गया है, जिसमें स्त्रियों के खुलकर हँसने, छत पर जाने तक पर पाबंदी रही है. इनके उपन्यासों में सभी स्त्री चरित्र ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्थावान हैं. वे धार्मिक संस्कारों और आयोजनों में कभी पीछे नहीं रहतीं. जीवन की अनेक समस्याओं जैसे - बाल विवाह, अनमेल विवाह, विधवा विवाह आदि का अभिशाप झेल रही और अभिशप्त जीवन जी रही स्त्रियों की दुर्दशा के प्रति भी इन्होंने अपनी कलम चलाई है. " जयदेव की बड़ी बहन विधा पाँचवीं कक्षा में पढ़ती थी तब उसका विवाह कर दिया जाता है. " " जगमोहन की 15 साल बहन का विवाह उसके पिता साठ साल के बूढ़े के साथ करने की कोशिश करते हैं जिसे कोई नहीं रोकता. " " अधेड़ उम्र का मैला-कुचैला और निकम्मा आदमी बसंती की बहन का घरवाला है जो उससे पैसे ऐंठता रहता है. " विधवा जीवन की विसंगतियों को झेल रही इनके उपन्यासों की स्त्रियाँ ताउम्र जीवन को सजा की तरह भोगती हैं. उदाहरण के रूप में, 'नीलू, नीलिमा, नीलोफर' की विधवा बुआ भिराँवा, और मंगली विद्या आदि चरित्रों को देखा जा सकता है. " विधवा हो जाने पर घर-बिरादरी की स्त्रियाँ इकट्ठा होने लगी थीं तो छातियाँ पीटते हुए उन्होंने मंगली विधा के सिर के बाल भी नोच डाले थे. "

भीष्म साहनी के उपन्यासों में उच्च, मध्यम और निम्न तीनों वर्गों की स्त्रियों का चित्रण देखने को मिलता है. 'तमस' की लीजा जैसी उच्चवर्गीय स्त्रियाँ शानो-शौकत की ज़िन्दगी व्यतीत करने के बावजूद भी पारिवारिक जीवन में कुण्ठाग्रस्त भावनाओं का शिकार हैं. "रिचर्ड के पास अक्सर लीजा के लिए समय नहीं होता, इसी कारण लीजा ऊबने लगती तो उसकी ऊब का कोई ठिकाना नहीं होता था, हर चीज काटने को दौड़ती थी, नेटिव लोग जहर से लगने और अंत में य तो वह 'नर्वस ब्रेक-डाउन' का शिकार हो जाती या फिर छ: महीने, साल के लिए विलायत लौट जाती थी." भीष्म जी के उपन्यासों में मध्यम वर्ग के स्त्री जीवन का वर्णन अधिक है. स्वयं लेखक ने इस वर्ग की रूढ़िवादी परपंराओं, प्रथाओं, रिवाजों, आचार-व्यवहार एवं परेशानियों को ध्यानपूर्वक जाना व समझा था. इसे 'कुन्तो' में जयदेव की माँ, मौसी, विद्या आदि चरित्रों के माध्यम से समझा जा सकता है. इनके अन्य उपन्यासों में भी ऐसी अनेक स्त्रियों को गिनाया जा सकता है. निम्नवर्गीय समाज में स्त्री को हेय समझ कर उसके साथ तुच्छतापूर्ण व्यवहार किया जाता है, इस बात की ओर भी लेखक की दृष्टि गई है, 'बसन्ती' उपन्यास में बसन्ती, बसन्ती की माँ और बाप आदि के माध्यम से इस तथ्य को समझा जा सकता है. "तमीज से बात करो. तुम क्या समझते हो, किससे बात कर रहे हो?" "बाबू जगन्नाथ के घर में, जहाँ बसन्ती काम करती थी, उस पर घड़ी चुराने का साफ इल्जाम लगाया गया."

इनके उपन्यासों में स्त्री के कई रूपों का वर्णन मिलता है - परंपरागत स्त्री, प्रगतिशील स्त्री और विद्रोही स्त्री आदि. परंपरागत स्त्रियाँ वे हैं जो अपने प्राचीन संस्कार नहीं छोड़ पाती. उन्हें परम्परा से विशष मोह होता है. वे परंपरा में ही अपने जीवन की सार्थकता समझती हैं. 'झरोखे' की माँ, 'तमस' में नत्थू की पत्नी, 'बसन्ती' में दीनू की पत्नी रूक्मी, श्यामा बीबी, 'मय्यादास की माड़ी' की मंसाराम की पत्नी ईशरादेई और उसकी बेटी पुष्पा, मय्यादास की पत्नी देवकी, 'कुन्तो' में जयदेव की माँ और 'बसन्ती' में बसन्ती की माँं इसी प्रकार की स्त्रियाँ हैं. "अगर तेरा सुषमा के साथ उन्स हो गया है, और तू उसके साथ ब्याह करना चाहता है तो बता दे. सारी दुनिया एक रिफ और मेरे बेटे की खुशी एक तरफ, मैं जैसे भी होगा तेरा साथ दूँगी.. .. वह मेरी बहन की बेटी है. बिरादरी थू-थू करेगी पर मैं सुन लूँगी. मुझे तेरी खुशी मंजूर है." प्रगतिशील स्त्रियों में 'कड़ियाँ' की महेन्द्र की प्रेमिका सुषमा, 'तमस' में रिचर्ड की पत्नी लीजा, 'बसन्ती' में बसन्ती सम्मिलित हैं. ये स्त्रियाँ पुरानी मान्यताओं को तोड़ती हुई परिस्थिति के अनुकूल अपने संस्कारों को छोड़ने हेतु प्रयासरत रहती हैं और नवीनता को स्वीकार करती हैं. इनके उपन्यासों में यह बात उल्लेखनीय रूप से सामने आती है कि जब परंपरागत स्त्रियों का टकराव आधुनिक दृष्टि की स्त्रियों से होता है तो वे टूटकर बिखर जाती हैं. 'कड़ियाँ' की प्रमिला सुषमा की तरह आधुनिक नहीं बन पातीं और पति के घर से निकालने के बाद पागलपन की शिकार हो जाती हैं. 'कुन्तो' की थुलथुल अपने पति धनराज कामोना के प्रति आकर्षण और अपने प्रति उपेक्षा न सहन कर पाने के कारण आत्महत्या कर लेती है. इसे 'कड़ियाँ' की प्रमिला और 'कुन्तो' की थुलथुल में देखा जा सकता है.

विद्रोही स्त्री वह है जो तमाम पुरातन मान्यताओं को दकियानूसी समझती है और उसे खत्म करना पसंद करती है. 'कड़ियाँ' में महेन्द्र की पत्नी प्रमिला, 'तमस' में हरनाम सिंह की पत्नी और उसकी बेटी जसबीर, अहसान अली की बीवी राजो, 'बसन्ती' की बसन्ती ऐसी ही विद्रोही स्त्रियाँ हैं जो समाज में संघर्ष करती रही हैं और उन संघर्षों के कारण उसके परिणामों को भी भोगने हेतु विवश हुई हैं. दंगे के दौरान अली की बीवी राजो अपने घर में हिंदुओं को शरण देने का साहस दिखाती है और साथ ही बुरे वक्त का सामना करने के लिए उन्हीं के ट्रंक में पड़े दो गहने भी हाथ में थमा देती है. भीष्म जी ने अपने उपन्यासों में स्त्री के समाज स्वीकृत रूपों मौसी, चाची, दादी का और समाज द्वारा अस्वीकृत रखैल एवं वेश्या के रूप में स्त्री का इस तरह से प्रस्तुतिकरण किया हैं कि ये सभी स्त्रियाँ अपने परिवेश में जीती जागती प्रतीत होती हैं. छरहरा शरीर, भड़कीली फूलदार पोशाक, हाथों में लाल रंग का छोटा-सा छाता लिए, जिसे उसने अभी से खोल रखा था, और आँखों पर काला चश्मा लगाए, मटक-मटककर चली आ रही थी, और उसके ऐन पीछे-पीछे एक गंवार किस्म का आदमी.. .. लड़की उसी तरह मटकती हुई आई, प्रोफेसर साहब की ओर कनखियों से देखा, मुस्कुराई और आगे बढ़ गई. उसके चले जाने पर प्रोफेसर साहब बोले, 'बला की खूबसूरत लड़की है. वाह, वाह! कैसे बाँकपन से चलती है. है तो वेश्या पर बड़ी सुंदर है. ऐसा सजीव और यर्थाथपरक चित्रण लेखक की साहित्यगत विशिष्टता है.

इनके उपन्यासों में आर्थिक रूप से स्वावलम्बी स्त्रियाँ भी हैं. उनमें कुछ कामकाजी हैं तो कुछ घरेलू. भीष्म जी आधुनिक सोच से युक्त लेखक हैं, इसलिए इनके उपन्यासों में यह मुद्दा जोरदार ढंग से उठाया गया है कि स्त्रियाँ जब तक शिक्षित और आत्मनिर्भर नहीं होंगी, उनकी स्थिति सुधरने वाली नहीं है. इसीलिए कामकाजी स्त्रियों को उनके उपन्यास-साहित्य में पर्याप्त महत्त्व दिया गया है. 'कड़ियाँ' की सुषमा (दफ्तर), 'बसन्ती' की बसन्ती (चौका-बर्तन), गोविन्दी (चाय की दुकान चलाने वाली), 'कुन्तो' की मोना (डॉक्टर), आदि ऐसी ही स्त्रियाँ हैं.

घरेलू स्त्री के रूप में भीष्म साहनी ने घर में बैठी हुई पारिवारिक जिम्मेदारी निभाने वाली ऐसी स्त्रियों के जीवन की घुटन और पीड़ा को वाणी प्रदान की है जिन्हें खुलकर सलाह देने य निर्णय देने का अधिकार नहीं रहा. "पर मौसी मुँह से बोल नहीं सकती थी, उसने कड़वा घूँट पीना ही सीखा था - गुस्से का, अपमान का, उपेक्षा का, चुपचाप घूँट पीती जाती और चुप्पी साध लेती, बस, न हूँ, न हूँ." यह ध्यातव्य है कि भीष्म साहनी ने ऐसी स्त्रियों का वर्णन अपने उपन्यासों में किया है जिन्हें उन्होंने करीब से देखा और जाना है. 'झरोखे' की माँ, विद्या, विमला, देवकी 'कड़ियाँ' की प्रमिला, सतवन्त 'तमस' की लीजा, नत्थू की पत्नी, जानकी, विद्या 'बसन्ती' की रूक्मी, श्यामा बीबी 'मय्यादास की माड़ी' की वीराँवली, पुष्पा, भागसुद्धि, 'कुन्तो' की सुषमा और थुलथुल आदि ऐसे चरित्र हैं जो ऐसा लगता है भीष्म जी के परिवार य परिचितों के यहाँ से उठकर उनके उपन्यासों में आ गए हों.

भीष्म साहनी का लेखन स्त्रियों के विविध रूपों माता, पत्नी, प्रेमिका, बहन, बेटी के रूप में स्त्री-जीवन के विभिन्न पक्षों का उल्लेख करता हुआ अशिक्षा असमानता, निर्धनता, साम्प्रदायिकता, असुरक्षा जैसे मुद्दों पर विशेष दृष्टि की माँग करता हैं. भीष्म जी ने अपने लेखन में संवादों के माध्यम से आस-पास के वातावरण को भी दर्शाया है. यह इनकी लेखनकला की खासियत है कि वे साधारण, संक्षिप्त, प्रभावमयी एवं चित्रात्मक ढंग से बात को असानी से कह जाते हैं. आम-आदमी के शोषण की जिम्मेदार सत्ता किस प्रकार अपना निजी स्वार्थ सिद्ध करने की होड़ में कुछ भी कर रही है, 'तमस ', 'मय्यादास की माड़ी ', 'बसन्ती' आदि इसके जीवन्त साक्ष्य हैं.

भीष्म जी के उपन्यासों में स्त्री-जीवन का चित्रण इस रूप में हुआ है कि उनकी समस्याएँ आइने के बिम्ब की तरह हमारे सामने दिखाई देने लगती हैं. भीष्म साहनी की स्त्रियाँ समाज में राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक क्षेत्र में संर्घषरत हो अपने लिए जो खास स्थान बनाती हैं, उसके दौरान उनके समक्ष जितनी चुनौतियाँ खड़ी होती हैं, उस परिस्थिति विशेष में उन सभी की पड़ताल होनी जरूरी है. इस क्षेत्र में इनके उपन्यासों का अध्ययन विशेष रूप से समाजोपयोगी होगा. इस शोध के माध्यम से ऐसे ही प्रयास की इच्छा है.

© 2009 Vijay Lakshmi; Licensee Argalaa Magazine.

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