इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
याद रखना कि तुम्हारा कल
वही पिता है उतरता सूरज, लौटता मौसम, खुलती दिशाएँ
और एक पथराई ज़मीन जिस पर हल की नोक छोड़ गई है पसीने की लीक.
जिसकी डबडबाई आँखें और कुछ नहीं
गाँव की बहती नदी थी जो हर बार लौट आती थी
देखने कि सब ठीक तो है न .
खूँटी पर टंगा भी है या नहीं वह परदादा का कोट जो एक मात्र धरोहर थी पिता के पास
हालांकि उसकी आस्तीनें बाहर हो जाती थीं पिता की देह से .
कोई वस्त्र नहीं था जो लपेट सकता था पिता की आत्मा
क्योंकि रूई बहुत कम थी
और कोई चरखा हो नहीं सकता था जिस पर चढ़ सकता था उनका सूत -सूत स्नेह .
चाँद की कहानी कपोल कल्पित है
सच है तो बस एक ये है सच
कि अभावों की टूटती कमर के बीच भी उनकी मूँछ पर बनी रही खेतों की मुसकान .
उधर बूढी विधवा अब भी बैठी है ढिबरी की पीली रौशनी के पास
लौ उसकी सफ़ेद लट के बीच बैठ गई है
जैसे कोई सारस बैठा है युगों से करता हुआ इंतज़ार .
न जाने कौनसी पगडंडी चल पड़ी हो घर छोड़
और ऊपर से अंदेशा ये
कि अब नहीं लौटेगी सरसों की पीली खुशबू पर
वह तितली
न ही बौर के पास बैठी होगी कोयल
इंतज़ार में कि रस से भरे आम अभी गिरेंगे ज़मीन पर
और एक नंगा बच्चा देख लेगा मीठा फल अपने टूटे कंचे की आँख में .
एक बहुत पुराने कुँए से
आ रही है धसकती आवाज़ बीते समय की टकरा टकराकर
जैसे बैल अब भी घूम रहा है पिता के इशारे पर
और चल रही है रहट घर्र -घर्र -घर्र .
घर के खपरैल से चू रहा है ज़माने का पानी
उतर रहा है मौन - रुदन और कातर आँख की दृष्टि अटक गई है
नीम की हरी पत्तियों से चारपाई की मूंज पर
जहाँ बैठे रहते थे पिता कभी
पिता की अकस्मात् मृत्यु पर
शोक में शामिल हुआ
कौन
एक सूखा खेत, फुर्र -फुर्र उड़ती भूरी-भूरी गाँव की धूल से अटी
वही जानी पहचानी धब्बेदार गौरैया .
और अजगर सी वह नीरव, धूसर पगडण्डी शहर को जाती
बस .
कल मैं पढ़ रही थी नेरुदा
और ज़ख़्मी हो गई थीं मेरी आँखें
आँसू के साथ घुल गया था लाल रंग
और रात घिर गई थी इस कदर मेरे इर्द-गिर्द
कि छलनी आकाश चमक रहा था
चमकीले घावों से ..
सिमटे -सिमटे से तारे
न जाने कितने उभर आये थे उसके माथे पर .
और एक छाला मेरी आत्मा पर जम गया था, जैसे कब्रगाह पर कोई रख आया हो स्मृति का नेह -दीप .
आज मैंने देखा सुबह के उजाले में
कब्बानी कविता के लिबास में बैठा था मेरी चौखट पर
साथ में उकडू था दमिश्क उनके बचपन का
वहीँ मैंने सुनी कातर आवाज़
पुकार रहा था वह बार-बार सुन्दरतम पत्नी का नाम अपनी ज़ुबान में
बलकिस-अल -रवि, बलकिस -अल -रवि
जिसे जाना था बादलों के देश
इन्द्रधनुष की तरह
और बुझ जाना था अपने देश पर साए की तरह मंडराती रातों में .
बारूद में सूंघी इस कवि ने अपनी भाषा और एक स्त्री
जिसे भरपूर किया उसने प्यार .
अभी मैं मायूस देख रही हूँ खिड़की के बाहर
बहुत उदास हूँ मैं . बहुत थकी .
मैंने रख दी है कविता तहा कर
बाहर निखर आई है खासी धूप कि जल जाए आँख और उतर आये मोतियाबिंध जवानी में ..
एक आकृति अधपकी तैरती है आसमान में और लपक कर गिर जाती है
जैसे दिन में टूट गया हो कोई तारा बेआवाज़ दर्द लिए .
मेरी त्वचा उतरने लगी है बीड़ी की आँच में पककर
और आत्मा जल गई है जैसे हो आखिरी कश ओंठ से लगा .
मेरे देश की खिड़की पर वह कोहनी टेके खड़ा है
उसकी भाषा बोलती नहीं ..
गुपचुप दे रही है संकेत मुक्ति के बोध का
बहुत सारे अपरिचय के बाद
मैं फुसफुसाती हूँ, "कौन है मुक्तिबोध ये ?"
पतला हो गया है सूरज, फूल गया है उसका पेट,
बची रह गई हैं गिनने को पसलियाँ कविता का दर्द .
तारसप्तक की वीणा कोने में पड़ी है
और एक विदेशी धुन सुनाई देती है रात के गिटार पर .
आस्था के अंधे दरवाजों में
पिस गई थी मेरी देह, खून से लथपथ मेरी आत्मा पर गहरी-गहरी चोटों के निशान थे
त्रिशंकु की तरह मेरा विवेक निर्णय के उस आकाश में लटका था
जहाँ मैंने हत्याओं को निर्दोष साबित किया
आस्था को आदमखोर भीड़ हो जाने दिया
उसके नुकीले पंजे किसी इतिहास की गुफा से बाहर आये
बाघ की तरह चमकती उसकी आँखें
भूख -प्यास से लपलपाती जीभ
वह अपने ही गहरे ज़ख्म चाट रहा था ..
शायद कोई उम्मीद थी सब ठीक हो जाने की किसी अल्लसुबह ..
वह गुर्रा नहीं रहा था . इस बार उसकी दहाड़ में अजीब सी आवाज़ थी, व्यथित करती ..
वह रोते-रोते कभी अली का नाम लेता
कभी राम का
उसकी सुबकियाँ आने वाली क्रांति का ऐलान नहीं थीं
न ही किसी परिवर्तन का संकेत करती.
ये नफरत की सूखी घास थी
जिसे अकसर हलकी सी हवा का झोंका बदल देता था आग में
झुलसे हुए चेहरों में काँपता रहता था शहर आने वाले कई बरसों तक .
मेरा पूरा शहर एक सन्नाटा था जो अब भी सोया पड़ा था नींद में
वह मेरे भीतर उतर गया था
और मैं उसे जगाना चाहती थी, सुनाना चाहती थी
उसकी उँगली पकड़कर दिखाना चाहती थी
कि आस्थाओं की क्रूर लपट में
जल गया बाघ, जल गईं फाख्ताएँ
यदि नहीं जला तो साँप बनता वह हरा भरा पेड़
जिसकी ज़हरीली फुँफकार मुझे जब-तब सुनाई देती है
और चीं-चीं करती उड़ रही हैं इस देश की तमाम आस्थाएँ .
© 2012 Aparna Manoj; Licensee Argalaa Magazine.
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