इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
लौटो अपने नगर पिया जी, मैं बैठी हूं पथ में
तुम ठहरे पीपल की छैयाँ, मैं सूरज के रथ में
सजल प्रतीक्षा बन उर्मिल, दहे विरहा में तिल-तिल
साध अधूरी चित्र हैं धूमिल, चौदह पल भी बोझिल
यों तड़पूँ ज्यों जल बिन मछरी, जीने के स्वारथ में ......
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कभी कुछ प्यार का अपने,
प्रिय एहसास तो देते
हृदय की धड़कनों को,
प्यार का विश्वास तो देते
चुभन हूँ कंटको की मैं, नहीं जो प्यार के काबिल ......
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