इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
शुभ्र चाँदनी से ज्योतित है, नदिया की निर्मल धारा.
कामिनियों की जल- क्रीड़ा से चंचल जल मानो पारा.
रजनी-बाला मुस्काती है, देख लहरियों का नर्तन
झाँक रहा है अंग-अंग से नदिया सा पावन यौवन
निर्वसना धारा सिकता- तटा की बाहों में सो जाए ......
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काट कर वो मेरी उँगलियाँ,
कह रहे हैं कि लिख दास्ताँ.
मैं सुनाता किसे और क्या,
संग दिल थीं सभी बस्तियाँ.
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