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इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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हस्तक्षेप

दिलीप शाक्य

प्रलय की छाया और राम की शक्तिपूजा: एक आख्यान-विश्लेषण

हिन्दी में सर्वप्रथम छायावाद युग के कवियों ने ही 'लम्बी कविता' को एक काव्य-माध्यम के रूप में अपनाया. छायावाद के तीन बड़े कवियों ने इस दिशा में प्रयास आरम्भ किए. सबसे पहले सुमित्रानन्दन पन्त ने 1923 में 'परिवर्तन' नामक कविता लिखी. यह कविता अपनी संरचना में लम्बी तो है किन्तु आख्यान की दृष्टि से इसका विशेष महत्व नहीं है. क्योंकि इसकी विषयवस्तु किसी कथा, वृत्तान्त, घटना अथवा घटनाओं की शृंखला को केन्द्र में रखकर नहीं चलती है. असल में यह कविता परिवर्तन की प्रक्रिया से उत्पन्न निराशा की एक केन्द्रीय मनोदशा को अनेक मुक्तक छन्दों में विस्तृत करती गयी है. ये मुक्तक कविता में इस प्रकार रखे गए हैं कि प्रत्येक मुक्तक को एक स्वतन्त्र छन्द के रूप में पढ़ा जा सकता है. साथ ही इस कविता की अभिव्यक्ति का पैटर्न प्रबन्धात्मक न होकर प्रगीतात्मक है. किन्तु अपनी प्रगीतात्मक संरचना में भी यह कविता एक केन्द्रीय मनोदशा की सतत उपस्थिति के कारण लम्बी होती गयी है.

स्पष्ट है कि यह कविता 'लम्बी कविता' के रूप-विधान का एक मॉडल तो प्रस्तुत करती है और कालक्रम तथा विन्यास की दृष्टि से भी इस हिन्दी की पहली लम्बी कविता होने का श्रेय प्राप्त है, किन्तु हम इसे एक 'आख्यानपरक लम्बी कविता' नहीं कह सकते हैं क्योंकि यह कविता अपने संरचनात्मक विकास के लिए किसी केन्द्रीय कथा अथवा आख्यान के आधार की बाध्यता की अस्वीकार करती है और प्रगति मुक्तकों के जोड़ से बनी होने के कारण इसमें वैसे सर्जनात्मक तनाव और नाटकीयता का भी अभाव है जो कि इस युग की अन्य लम्बी कविताओं 'प्रलय की छाया' और 'राम की शक्तिपूजा' में विद्यमान है. 'प्रलय की छाया' एक ऐतिहासिक इतिवृत्त पर आधारित है और 'राम की शक्तिपूजा' राम कथा के आख्यान से अपना उपजीव्य ग्रहण करती है. 'प्रलय की छाया' (1933, लहर) चूँकि कालक्रम की दृष्टि से 'राम की शक्तिपूजा' (1937, अनामिका) से पहले की कविता है, अत: हिन्दी में 'प्रलय की छाया' को ही सबसे पहली 'आख्यानपरक लम्बी कविता' माना जाना चाहिए. किन्तु 'नयी कविता' युग में जिन लम्बी कविताओं की रचना हुई, उनके रचना-विधान और उनमें अभिव्यक्ति आधुनिक भाव-बोध का जितना सम्बन्ध 'राम की शक्तिपूजा' की काव्य-संवेदना और रचनाविधान से है उतना 'प्रलय की छाया' की काव्य-संवदेना और रचनाविधान से नहीं. आलोचकों ने प्राय: 'राम की शक्तिपूजा' को ही नयी कविता की लम्बी कविताओं की पिछली परम्परा के रूप में देखा है.

इन दोनों कविताओं में ही काव्य-रचना की प्रबन्धात्मक व्यवस्था के टूटने की अनुगूंज साफ़ सुनायी देती है. ये कविताएँ असल में, कविता में आख्यान को साधने की नयी शैली का सूत्रपात करती जान पड़ती हैं. इस दृष्टि से 'प्रलय की छाया' को पढ़ते हुए दो बातों की और ध्यान जाना चाहिए. एक तो यह कि कविता प्रथम पुरुष में लिखी गयी है अर्थात कवि ने वाचन की आत्मकथात्मक शैली का उपयोग किया है. दूसरे शब्दों में कविता में नायिका समला (यदि उसे नायिका कहा जा सके) अपने भाव-भगत को प्रस्तुत करते हुए अपनी कथा स्वयं कहती है किन्तु इस आत्मकथात्मक के बावजूद यह कविता एक विस्तृत कथा-परिदृश्य रचने में सफल हुई है. वाचन की इस आत्मकथात्मक शैली के माध्यम से विस्तृत कथा-परिदृश्य उपस्थित करने की बेचैनी एक बिल्कुल भिन्न स्तर पर, आगे चलकर, मुक्तिबोध की लम्बी कविताओं में दिखाई पड़ती है. इस कविता से जुड़ी दूसरी बात यह है कि यह कविता मुक्त छन्द में है और आत्मपरकता के गहरे दवाब के बावजूद नाटकीय काव्य-संरचना का सफलतापूर्वक निर्वाह करती है. यही नहीं, कविता में कमला के आन्तरिक भाव-जगत का बाह्य घटनाओं (वस्तु जगत) के साथ जैसा सन्तुलन स्थापित किया गया है वह कविता को 'सपाटबयानी' से बचाकर 'नाटकीय' तो बनाता ही है, साथ ही काव्य-वस्तु में कई नए अर्थ भी झलक मारते दिखाई देते हैं.

ये अर्थ एक और कविता में नायिका के रूप और सौंदर्य के दर्प से निर्मित मध्यकालीन मानस की विडम्बनापूर्ण को रेखांकित करते हैं तो दूसरी और विषम और विरोधी अनुभवों एवं परिस्थितियों की टकराहट के माध्यम से उस 'सर्जनात्मक तनाव' को भी अर्जित करते हैं जिसे लम्बी कविताओं के रचनाविधान के लिए बहुत आवश्यक समझा जाता है. ऊपर से देखने पर 'प्रलय की छाया' की काव्यवस्तु में कोई नयापन नजर नहीं आता. वह एक ऐतिहासिक इतिवृत्त का दोहराव की अधिक लगता है. किन्तु जब हम कविता में इस इतिवृत्त को दोहराव की अधिक लगता है. किन्तु जब हम कविता में इस इतिवृत्त के माध्यम से कमला के व्यक्तित्व की आन्तरिक बुनावट को खुलता हुआ पाते हैं तो यही इतिवृत्त कविता के आख्यान बुनावट को खुलता हुआ पाते हैं तो यही इतिवृत्त कविता के आख्यान को विशिष्ट बनाता है. यह विशिष्टता शब्दों के उस लयात्मक संयोजन से अर्जित की गयी है. जो प्रसाद की ही नहीं, पूरी छायावादी काव्य-भाषा की महत्वपूर्ण विशेषता है. नित्यानन्द तिवारी ने इस कविता का मूल्यांकन करते हुए अपने एक लेख में इस लयात्मक संयोजन की और संकेत किया. उनके शब्दों में 'कई कई लय की लम्बी सांस इस कविता की अनुभूति को पर्त-पर्त उस क्षमता से समृद्ध करने वाली है जो अर्थ को अधिक ऊर्जा-सम्पन्न और संश्लिष्ट बनाती है. विरोधी और विषम अनुभवों की तनावपूर्ण ताकतों को एक साथ बाँधकर उनकी परस्पर टकराहट से काव्यार्थ को उभार और सम्भाल ले जाने का बहुत कुछ दायित्व इस कविता के लयविधान का है [1].

'प्रलय की छाया' की ये समस्य विशेषताएँ एक भिन्न काव्य-स्थापत्य के रूप में निराला की 'राम की शक्तिपूजा' में भी मौजूद हैं. 'प्रलय की छाया' की तरह 'राम की शक्तिपूजा' में भी आख्यान को स्मृति-बिम्बों के माध्यम ये फैलाया गया है. किन्तु 'राम की शक्तिपूजा' में यह कोशिश एक बिल्कुल भिन्न स्तर पर हुई हैं ; क्योंकि निराला ने भारतीय कथा परिपाटी के अनुसार एक ख्यात कथा का आधार ग्रहण किया है. यह कथा ख्यात ही नहीं मिथकीय भी है और एक विशिष्ट धार्मिक संवेदना से सम्बद्ध होने के कारण भारतीय लोकमानस के जीवन व्यवहार का अभिन्न हिस्सा रहती आयी है. यह वजह है कि निराला स्मृति-संकेतों के माध्यम से भी कविता में कथा के महाकाव्यात्मक स्वरूप को उभार सके हैं. इस दृष्टि से इस कविता के सम्बन्ध में रामविलास शर्मा का यह कथन उचित ही जान पड़ता है कि 'राम की शक्तिपूजा' महाकाव्य नहीं है, खण्डकाव्य भी नहीं, वह एक लम्बी कविता है परन्तु उसमें ये सभी गुण वर्तमान हैं [2]. इस कविता की बनावट में स्मृति-संकेतों का जैसा उपयोग हुआ है उसके बिना कविता में इन महाकाव्यात्मक गुणों का अर्जित करना सम्भव नहीं था.

स्मृति के माध्यम से ही इस कविता की आन्तरिक बनावट में सर्जनात्मक तनाव को फैलाया गया है. कविता की संरचना में स्मृति की यह माँग भीतरी और बाहरी, दोनों स्तरों पर है. कविता में जगह जगह पर आए स्मृति-बिम्बों के माध्यम से एक और आख्यान के उभार को गहरा किया गया है तो दूसरी और स्मृति-भ्रंश की टेकनीक का उपयोग कर कविता की भीतरी और बाहरी संरचना में सर्जनात्मक तनाव और नाटकीयता को उभारा गया है. वागीश शुक्ल इस कविता की आन्तरिक संरचना को एक 'द्विपत्र' के रूप में देखते हैं. उनके शब्दों में, "इस कविता की आन्तरिक संरचना एक 'द्विपत्र' (डिप्टिक) है; एक ऐसी तख्ती जो बीच में एक पेंचदार कील डालकर दो हिस्सों में बाँट दी गयी है; जैसे ही एक हिस्से पर लिखा हुआ पढ़ना पूरा होता है, यह कील घूम जाती है और आप दूसरी और की इबारत अपने सामने पाते हैं. आप जब दूसरी और की इबारत पढ़ना खत्म करते हैं, पहल और की इबारत में काफी बदलाव आ चुका होता है" [3]. जब हम वागीश शुक्ल की इस धारणा को ध्यान में रखते हुए कविता की संरचना में बँधे विभिन्न प्रसंगों से गुजरते हैं तो पूरी कविता को अर्थ की एक नयी धज में झलकता हुआ पाते हैं तथा कविता में आख्यान का पूरा स्थापत्य और उसके ब्यौरे और भी साफ साफ दिखाई देने लगते हैं.

उपर्युक्त दोनों कविताओं का छायावादी दौर में लिखा जाना कविता के आख्यान में आए उस बदलाव का सूचक है. जिसके तहत इन कवियों के लिए सृजनात्मक अनुभव को पूर्ववर्ती कविता के प्रबन्धात्मक ढाँचे में खपाना मुश्किल हो गया था. यह कारण है कि इन कविताओं में प्रबन्धात्मकता का झीना सा आभास तो है किन्तु वह प्रबन्धात्मक ढाँचा और वर्णनात्मक शैली गायब है तो द्विवेदीयुगीन कविता के आख्यान की प्रधान विशेषता थी. यही कारण है कि इन कविताओं का आधारभूत ढाँचा तो प्रबन्ध का है किन्तु शैली प्रगीतात्मक है. कहने का अर्थ यह है कि इन कविताओं की वर्णन-पद्धति पर छायावादी प्रगीत संवेदना और आत्मपरकता का गहरा प्रभाव है किन्तु फिर भी ये कविताएँ जिस रूपविधान का सहारा लेती हुई दिखाई देती हैं, उसमें प्रबन्ध कविता की पुरानी परिपाटियों के सूत्रा कुछ सीमा तक ही सही बचे रह जाते हैं. दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि ये कविताएँ प्रबन्ध और प्रगीत की पारस्परिक टकराहट और अन्तर्ग्रथन से उत्पन्न हुई हैं. इस स्थिति से इन कविताओं के आख्यान में काव्य-रचना के जिस विधान का जन्म हुआ वह था कविता का 'नाटकीय विधान'. आगे चलकर नयी कविता की अधिकांश लम्बी कविताएँ इसी नाटकीय विधान पर विकसित हुईं.

पूरे छायावाद में प्रसाद और निराला ही दो ऐसे कवि हैं कि जिनकी कविता के आख्यान में काव्य नामक की विशिष्ट और महत्वपूर्ण उपस्थिति है. उनकी लम्बी कविताओं में काव्य-नायक का रूप वैसा विराट और आदर्शवादी नहीं रह गया जैसा कि वह पूर्ववर्ती कविता में दिखाई देता था. अब काव्य-नायक का व्यक्तित्व आदर्श की मनोभूमि से हटकर यथार्थ की मनोभूमि पर विकसित हो रहा था. यह यथार्थ का ही दबाब था कि निराला राम के मिथकीय चरित्र में भी अपने व्यक्तित्म की प्रधान विशेषताओं का आरोपित करते हुए दिखाई देते हैं. जबकि निराला की ही दूसरी लम्बी कविता 'सरोज-स्मृति' तो पूरी तरह उनके जीवन के त्रासद यथार्थ का ही आत्मकथात्मक रूपान्तरण है. इसी प्रकार प्रसाद भी 'प्रलय की छाया' में कमला के संशिष्टि व्यक्तित्व को यथार्थ की मनोभूमि पर ही चित्रित करते जान पड़ते हैं.

इस तरह छायावादी वैयक्तिकता और आत्मपरकता के प्रभाव से पहले से चले आ रहे प्रबन्धकाव्य की संरचना में कथातत्व झीना होता गया और काव्य-नायक के व्यक्तित्व की आन्तरिक मनोरचना में कवियों की दिलचस्पी बढ़ी. इस दृष्टि से छायावाद की लम्बी कविताएँ कविता की परम्परा में काव्य-नायक के पुराने स्वरूप को पूरी तरह अस्वीकार करती जान पड़ती हैं. पंत की 'परिवर्तन' और प्रसाद की 'प्रलय की छाया' में तो काव्य-नायक उपस्थित ही नहीं है. ('प्रलय की छाया' की नायिका को भी हम उस अर्थ में नायिका नहीं कह सकते. वह एक नारी चरित्र की त्रासद परिणति ही अधि है). काव्य-नयिका की दृष्टि से निराला को 'राम की शक्तिपूजा' का अध्ययन महत्वपूर्ण होगा. 'राम की शक्तिपूजा' ही वह पहली लम्बी कविता है जिसमें काव्य-नायक के पारम्परिक स्वरूप का कई स्तरों पर निषेध दिखाई देता है. वहाँ राम काव्य-नायक तो हैं किन्तु उससे भी पहले वह एक साधारण मनुष्य हैं जिनके मन में युद्ध के प्रति संशय का भाव है और जो शत्रु से पराजित होने के भय का सामना करते हुए दिखाई देते हैं. महाकाव्य के पारम्परिक काव्य-नायकों के लिए पराजय से भय और युद्ध के लिए संशय की स्थिति का कोई महत्व को ही नहीं सकता. वे अपनी विजय के प्रति पूरी तरह आश्वस्त दिखाई देते हैं. इस दृष्टि से इस कविता के काव्य-नायक की पारम्परिक काव्य-नायक से कोई संगति नहीं बैठती.

दूसरे शब्दों में राम के विराट नायकत्व की छवि को निराला ने साधारण और समकालीन मनुष्य की मनोभूमि पर समझने का प्रयास किया. इसे आलोचकों ने राम के पौराणिक व्यक्तित्व में निराला के अपने व्यक्तित्व अथवा आत्म के प्रक्षेप के रूप में देखा है. यही कारण है कि इस कविता में कवि वाचक की भूमिका में होते हुए भी, ऐसा प्रतीत होता है कि राम की कथा कवि नहीं बल्कि राम स्वयं अपनी विगत स्मृतियों के माध्यम से कह रहे हों. इसे यूँ भी कह सकते हैं कि निराला राम की कथा के आवरण में राम की विगत स्मृतियों के माध्यम से अपने जी जीवन की कथा कह रहे हैं यही कारणा है कि कुछ आलोचकों ने इस कविता में गहरी आत्मपरकता को लक्ष्य करते हुए राम के चरित्र को निराला की आत्मकथात्मक कविता 'सरोज-स्मृति' में उद्घाटित कवि के स्वयं के चरित्र से जोड़ने की बात की है. स्पष्ट है कि 'राम की शक्तिपूजा' के काव्य-नायक के चरित्र में निराला के निज अथवा आत्म का प्रक्षेप है. प्रबन्ध कविता के पुराने महाकाव्यात्मक ढाँचे में यह सम्भव नहीं था, क्योंकि वहाँ कवि प्रबन्धकाव्य के सम्पूर्ण वृत्त से स्वयं के व्यक्तित्व को सायास बाहर रखता था. आधुनिक कवि के लिए यह बहुत दूर तक सम्भव नहीं था. इस दृष्टि से 'राम की शक्तिपूजा' के काव्य-नायक की छवि एक प्रस्थान बिन्दु हैं जहाँ से हम आगे की कविता में काव्य-नायक की उपस्थिति और अनुपस्थिति के स्वरूप का मूल्यांकन कर सकते हैं.
सन्दर्भ

1. नरेन्द्र मोहन, लम्बी कविताओं का रचना विधान, पृ. 40-41
2. रामविलास शर्मा, नयी कविता और अस्तित्व, पृ. 52
3. वागीश शुक्ल, छन्द छन्द पर कुमकुम, पृ. 35

© 2009 Dileep Shakya; Licensee Argalaa Magazine.

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