अर्गला

इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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काव्य पल्लव


शीला कार्की

माँ तेरा आँचल चीर-चीर कर डाला तेरे पूतों ने
अबला असहाय तेरी तलवार जंग खा गई

माँ, बेटियाँ, बहनें सभी बिकती हैं बाज़ारों में
नन्ही सी गुड़िया और बड़ी उम्र वाली बुढ़िया,
सभी बलात्कार का शिकार हो चुकीं. ......
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सुषमा भण्डारी

मेरा अचेतन मन
चेतन हो गया
एक ही पल में.
स्पर्श किया जो तुमने
जल गया स्नेह दीप
मेरे हृदय तल में. ......
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वाज़दा ख़ान

आसमान! तुम सूरज को विदा दो,
माना सूरज तुम्हारा अपना है
तो किरणें भी तो हमारी हैं?
इसका मतलब ये तो नहीं, कि तुम
उन बादलों को तिलांजली दे दो जो
हम तक बूँद बनकर ......
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विवेक शर्मा

कितनी बार माँ मैंने देखा है तुमको संकोच में,
कब किससे, कहूँ, क्या, कब, कैसे, की सोच में,
अपने ही घर की बैठक में गुमसुम तुम,
परोस रही चाय - पकौड़ी अंग्रेजी मेज पर,
और खाली प्यालों में खोजती हस्ती अपनी,
जो बेजुबान हो गयी है अपने ही देश में ......
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रवीन्द्र गौतम

खेलना
आता नहीं ज़िन्दगी से
क्या करूँ
परिंदा हूँ
मैं बँध पाता नहीं
है फितरत फड़फड़ाहट की ......
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किरण सिन्धु

प्राण-दीप की लौ प्रकम्पित हो रही,
श्वास की गति भी अनियमित हो रही;
जीर्ण-शीर्ण काया की मैं क्या कहूँ,
आयु की अवधि अनिश्चित हो रही.

दृष्टि धूमिल, अंगशिथिल, लुप्त होते स्मृति अवशेष, ......
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