इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
रोज़ रोज़ मोड़ पर
वह मुझे मिलता
खड़ा हुआ मैले कपड़ों में
मैं भी जो भी, जितने होते
सिक्के रख देते
उसकी विपन्न ......
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बारिश भीगती रात में
जब बिजली अचानक गुल हो जाय
डूब जाये
अंधेरे में समूचा घर
चौके से चिल्लाती है माँ ......
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