अर्गला

इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

Language: English | हिन्दी | contact | site info | email

Search:

युवा प्रतिभा

अभिषेक आनंद

कैसी हो माँ

सब कहते है.
ऐसी हो माँ, तुम, वैसी हो माँ.
कोई माँ से कभी ये भी तो पूछे,
कि "कैसी हो माँ?"

आधे पेट की भूख

माँ की भूख होती है
बस आधे पेट की
और इस आधे पेट में भी
जो जाते हैं चावल के दाने
वो कभी, जब छुटकी नहीं खाती,
कुछ उसके बहाने
या मंझला बेटा जिद पे आ जाये
लगे माँ को खिलाने
या कभी, रोटी जो जल गयी हो
कुछ उसे सधाने;
और ऐसे ही जाने कितने बहाने से
उसने खबर तो रखी है
सबके जूठे प्लेट की
पर उसके ख़ुद की भूख
रह जाती है, हमेशा
बस आधे पेट की.

दर्पण

'दर्पण' शिकायत है तुमसे
मेरे चेहरे मत काटो

आधा ईमानदार, आधा बेईमान
बदलते मेरे चेहरे के हाव भाव, रोज़
थोड़ा बेचैन, थोड़ा परेशान

अन्दर कुछ, बाहर कुछ

ख़ुद को खोजता हुआ
अपने ही भीतर
खो गया हूँ मैं
अपने आप से अपरिचित
हो गया हूँ मैं

बिखर गया हूँ मैं
अपनी ज़मीन से उखड़ गया हूँ मैं
मुझे समेटो, हिस्सों में न बाँटो

'दर्पण' शिकायत है तुमसे
मैं पूरा नहीं दिखता हूँ
मेरे चेहरे मत काटो.

भोली माँ

कुछ भी नहीं समझती है माँ!
किवाड़ पर हलकी सी भी आहट हो तो
रात भर, अकेली, जागी रह जाती है
मुझे घर आने में थोड़ी देर हो
तो चलकर, मोड़ तक पहुँच आती है
कभी भूखे पेट जो, सो जाऊँ
तो वो भी, कुछ खा नहीं पाती है
उसको समझाऊँ कैसे
अब मै बड़ा हो गया हूँ
रख सकता हूँ अपना ख़याल
मगर
गोद से लेकर अबतक, पाला है जो उसने
अब भी मुझे बच्चा ही समझती है
मेरे लिए परेशान सी रहती है
जो मैं सोचता हूँ, वो शुकून से रहे
जो मैं दुआ करता हूँ, वो लम्बी उम्र जिए
जो मै भी चाहता हूँ, वो भी पूरी नींद ले
पर, कैसे समझाऊँ उसे!
मेरे बारे में तो सोचती है
पर मेरे जैसा नहीं सोचती है माँ
बहुत भोली है
कुछ भी नहीं समझती है माँ.

© 2009 Abhishek Anand; Licensee Argalaa Magazine.

This is an Open Access article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution License, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original work is properly cited.