अर्गला

इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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गीत माधुर्य

आलोक रंजन झा

1

बस अबके दफा नहीं रोया हूँ मैं,
पर रात भर नहीं सोया हूँ मैं.

जब गुज़रो इधर से,दे देना एक दस्तक,
एक अरसे से ख्वाबों में खोया हूँ मै.

चीर सकता था मै भी समंदर का सीना,
क्या करता, अपनों का डुबोया हूँ मैं.

आ भी जाए गर तूफान तो कुछ गम नहीं,
गम की बारिश का इस तरह भिगोया हूँ मै.

एक क़तरा मसर्रत का छू ना सका ,
दुःख के धागे में हरदम पिरोया हूँ मै.

देखने को तो  देखे थे मैंने कभी,
पर टूटा ,हर सपना संजोया हूँ मै.

दाग दामन पे 'आलोक' के पड़े है कई,
कैसे कह दूं शराफत का धोया हूँ मै.

© 2011 Alok Ranjan Jha; Licensee Argalaa Magazine.

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