इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
"भाईयों एवं बहनों, सावधान हत्यारों ने फिर उसी ज़बान में बोलना शुरू कर दिया है, जिसमें हमारी आपकी माँओं की लोरियों की गंध है और जो हमें बेहद पसंद है. साथियों, ये वे लोग हैं जो अघाये हुये हैं और जिनकी कल की रोटी सुरक्षित है. इन्हें पहचानिये! ये हमें तोड़ फ़ोड़कर, झूठे भ्रम फ़ैलाकर, नकारा कर देना चाहते हैं? सोचिये हमें क्या मिला है. इनकी मीठी भाषा से, इनके लुभावने नारों से. पहचानिये उन मुहावरों को, जो आज़ादी और समाजवाद के नाम पर चल रहे हैं. चालीस सालों से ये हमारी भूख और बदहाली को सोहर की तरह गा रहे हैं. मिट गयी हमारी भूख? आ गया खुशहाली का मौसम? क्या आप अब भी विश्वास करना चाहते हैं सत्ता और समाज व्यवस्था के इन दलालों का?" (अरे चाण्डाल उपन्यास से).
"अरे चाण्डाल" प्रमोद कुमार तिवारी का दूसरा उपन्यास है. इससे लगभग तीन साल पहले उनका पहला उपन्यास "डर हमारी जेबों में" आया था और बहुत चर्चित हुआ था. इस उपन्यास का कथा काल अस्सी और नब्बे का दशक है. "अरे चाण्डाल" को भी लेखक ने पहले उपन्यास के साथ साथ ही लिखा है और इसका भी कथा काल वही है, अस्सी नब्बे का दशक. आपातकाल के बाद का यह समय संघर्षों और आंदोलनों का समय रहा है, साथ ही राजनीति, ब्यूरोक्रेसी और विधाईका के लगातार खोखला होते जाने का समय भी यही है. "अरे चाण्डाल" में लेखक ने इन सभी विषयों को कथा का आधार बनाया है और इन सभी बदलावों को एक दूसरे से मिलाकर अत्यंत जटिल संरचना वाला बहुस्तरीय कथानक तैयार किया है. इसकी बुनावट अत्यंत सघन है जिसके रेशे रेशे को खोलकर देखना कटाई संभव नहीं है, इसे इसकी जटिलता में ही समझने का प्रयास किया जा सकता है.
अपने पहले उपन्यास "डर हमारी जेबों में" में लेखक ने एक सबडिविज़नल शहर "खेला सराय" को केंद्र में रखा था जिसमें यदा कदा कुँवरपुर गाँव का भी ज़िक्र आता है. अरे चांडाल के केंद्र में कुँवरपुर गाँव है और उपन्यास की भाषा यहाँ के स्थानीय वैशिष्ट्य को पूरी जीवंतता के साथ वहन करती है. दोनों ही उपन्यासों में आम लोगों की संवेदनहीनता, लाचारी, राजनीति और प्रशासन का भ्रष्ट चरित्र प्रस्तुत किया गया है. अभी लेखक के तीसरे उपन्यास की दम साधकर प्रतीक्षा करने के अलावा और कोई चारा नहीं है.
अरे चाण्डाल की कहानी कुँवरपुर गुणी और विक्रमगंज के इर्द गिर्द घूमती है, जिसमें मुख्य केंद्र है-कुंवरपुर. कुंवरपुर भारतीय गावों के एक प्रतिनिधि चरित्र के रूप में उपन्यास में उभरकर सामने आया है. इस अंचल के माध्यम से लेखक ने भारत की राजनीति, विधायिका, कार्यपालिका और आम लोगों की नैतिक गिरावट और सँघर्षों को उनकी नैतिक विडंबना के साथ चित्रित किया है. उपन्यास का मूल विषय है-उस गाँव के अगड़ों पिछड़ों और दलितों की राजनीति और उनके बीच चल रहे वर्चस्व का सँघर्ष. इसमें आज के सभी पार्टियों के नेता अपने पार्टीगत चरित्र के साथ उपस्थित हैं किंतु लेखक ने अपना ध्यान नक्सली राजनीति तथा जातिगत अस्मिता की लड़ाई पर केंद्रित किया है. इसी के साथ लगा बँधा है, ब्यूरोक्रेसी और पुलिस का भ्रष्ट तंत्र और उनकी लाचारी दुष्चक्र में केवल नेता और अफ़सर ही शामिल नहीं हैं बल्कि गाँव का अदना से अदना व्यक्ति भी न चाहते हुये भी इस खेल में शामिल होने को अभिशप्त है. उपन्यास का एक पात्र मानिक उपन्यास के लगभग आरंभ में ही आज की राजनीतिक स्थिति पर टिप्पणी करता है.
लगभग उसी के तर्ज़ पर बस का कंडक्टर गोसाँई पांडेय कॉमरेड मंधाता मिसिर से बात करते हुये अपने ढंग से राजनीति की विडंबना को प्रस्तुत करता है.
आज की व्यवस्था पर कुंवरपुर के राजपूत नेता श्री भगवान सिंह की टिप्पणी भी देखने योग्य है.
आम आदमी इस धुंध में साफ़ साफ़ कुछ भी नहीं देख पा रहा और सरकार है कि आँकड़ों को उसके आगे पटककर जबरन उन्हें विकास की परिभाषा समझा रही है लेकिन लेखक विकास के इस भेद को खोलकर रख देता है. अर्थात आँकड़ों की यह असलियत जिसके कारण मुट्ठी भर लोग समृद्ध हो रहे हैं
और मजदूर तथा गरीब किसान या तो आत्महत्या करने को मज़बूर हो रहे हैं या बंदूक पकड़ने को. इन गावों के खेतों में फ़सल के साथ साथ बंदूकें भी उगा करती हैं किंतु विडंबना यही है कि गरीबों के हाथ न फ़सल लगती है, न बंदूकें. वे भूख से भी मर रहे हैं और बंदूक से भी.
पढ़ लिखे माध्यम वर्ग के लोग (उसमें भी ज़्यादातर सवर्ण लोग) इन गरीबों के रहनुमा बन गये हैं जो उन्हें हक़ दिलाने नाम पर उनका हक़ मारकर अपनी राजनीतिक चमका रहे. वसुधा से बातें करती हुई दमयंती ठीक ही तो कह रही है कि "पढ़े-लिखे लोग तो और भी गये गुजरे हैं धर्मग्रंथ लिखने वाले भी तो पढ़े लिखे रहे होंगे न?".
इस उपन्यास में चार वामपंथी नेता हैं जो दलितों के सँघर्ष की रहनुमायी कर रहे हैं. सबसे पहले नन्हकू सिंह हैं जो गरीबों को उना का हक़ दिलाने में हिंसा से भी परहेज नहीं करते हैं या सूक्ष्मता से कहें तो हिंसा के मौके की तलाश में रहते हैं. वामपंथी नेता बनने से पहले वे विक्रमगंज कालेज में दादागीरी किया करते थे. उग्र वामपंथ से जुड़कर राजनीति को नन्हकू सिंह शोहरत और समृद्धि तक पहुँचने का जरिया समझते हैं. नन्हकू सिंह के ही गुट में दयाशंकर पांडेय हैं जो वामपंथ की राजनीति में परिस्थिति प्रतिकूल होने के कारण आये हैं. किंतु कई बार परिस्थितियों के साथ घिसटते भी चले जाते. तीसरे नेता हैं कॉमरेड मंधाता मिश्र. ये पेशे से वकील हैं लेकिन अपनी सहूलियत देखते हुये काले कोट के ऊपर कभी कभी लाल कोट भी पहन लेते हैं इन नेताओं के अलावा एक नक्सली नेता हैं धनन्जय जी जो गरीबों को उनका हक़ दिलाने की ख़ातिर मेडिकल की पढ़ाई और सुखी जीवन छोड़कर खेत खलिहानों में उतर पड़े हैं. इन्ही नेताओं के वर्चस्व की लड़ाई में उलझकर रह गयी है. गरीबों की वास्तविक लड़ायी. ये लोग गरीब दलितों के दुख को मर्म पर नहीं महसूस करते या तो अपने स्वार्थवश इनकी लड़ायी में घुस पड़ते हैं या सहानुभूतिवश. स्वार्थ और सहानुभूति के इस दलदल को पार करते हुये दमयंती उस वास्तविक लक्ष्य तक पहुँच जाना चाहती है. जिस लक्ष्य का सपना उसे वामपंथ ने दिखाया है, किंतु वह इन बड़े लोगों की बड़ी बड़ी बातों और क्षुद्र ईर्ष्याओं की धुंध में भटककर रह जाती है. वह इन बड़ी बड़ी बातों को नहीं समझती लेकिन गरीबों की लाचारी को बखूबी समझती है.
जब भी सीधा टकराव का वक्त आता है. तो कॉमरेड दयाशंकर तैयारी की ओट में जा छुपते हैं कहते हैं निर्णायक लड़ाई से पहले पूरी तैयारी ज़रूरी है और दमयंती यह नहीं समझ पाती कि बिना पानी में उतरे कोई तैरना कैसे सीख सकता है. बातें तो मंधाता मिश्र भी बड़ी बड़ी करते हैं किन्तु इन बातों और पढ़ाई की आड़ में वे दमयंती का यौन शोषण करते हैं और दमयंती जब तक इन बातों का छद्म तार तार करके असलियत तक पहुँचती है, तब तक बहुत कुछ खो चुका होता है. ऐसे ही एक सीमा के बाद धनंजय जी की भी दुविधा दमयंती समझने लगती है और इस धुंध में अंधाधुंध हिंसा के रास्ते पर बढ़ती चली जाती है क्योंकि वह लड़ने को अभिशप्त है. वह औरों की तरह अपनी सुविधानुसार अब लड़ाई को और स्थगित नहीं रख सकती. अंतत: अपने फ़ैसले वह खुद लेने लगती है जिसके कारण पार्टी के अन्य नेताओं से बढ़ते मतभेद का शनै: शनै: बढ़ते जाना.
दलितों में से ही एक अनजाना भी है जो नेताओं की चिरौरी और दलाली करके लगातार समृद्ध होता चला जाता है. यह एक प्रतिनिधि चरित्र है-वामपंथ के अलावा गाँव में अन्य राजनीतिक पार्टियाँ भी सक्रिय हैं, नौलाख महतो पिछड़ों के नेता हैं और अपनी परिधि में दलितों को खींच लाने के लिये हमेशा तिकड़म लगाते रहते हैं, उनकी साठ गाँठ अपराधियों से भी है. सत्ता पक्ष के विधायक राम प्रदेश नौकरी के साथ नौलाख महतो के मधुर संबंध हैं, बूटन राय भूमिहार जाति के हैं और भा जा पा की राजनीति करते हैं विकास की आड़ में अपना उल्लू सीधा करने का हुनर ये भली-भाँति जानते हैं, जातिगत समीकरण न बैठने के कारण चार बार मात खाये जबकि कुंवरपुर वालों की स्पष्ट मान्यता है कि वोट और बेटी दूसरी जातिवालों को नहीं देंगे.
श्री भगवान सिंह कुँवरपुर में राजपूतों के प्रमुख नेता हैं जिनका संबंध सीधे सवर्ण सेना के सेनापति नारद सिंह से बहुत निकट का है. श्री भगवान सिंह गाँव तथा दलितों की विकास योजनाओं का फ़ंड हर बार हज़म कर जाते हैं. और थोड़ा बहुत खर्च भी करते हैं तो दलितों के बदले राजपूतों के कल्याण में इसके बाद नन्हकू सिंह दलितों की और से गाँव के दूसरे मुद्दे पर ललकारते हैं कि जिस गरीब किसान ने पाँच वर्ष तक मनी पर खेत जोती है वह उस पर अधिकार कर लेगा, लेकिन इस बार भी निर्णायक लड़ाई नहीं हो पाती है और जिस मजदूर ने नन्हकू सिंह की शह पर अपने मालिक हरिद्वार पांडेय से बगावत की उसे कुछ जमीन देकर मामले को ख़त्म कर दिया जाता है. इसके बाद नन्हकू सिंह ने गाँव के नौकरीपेशा लोगों के खिलाफ़ आवाज़ उठाई जो अपने हिस्से की कुल जमीन बेंचकर शहर में बस जाना चाहते थे. क्योंकि वे गाँव में रहते नहीं थे इसलिये उनलोगों को न गाँव के प्रति मोह था न ज़मीं के प्रति. नन्हकू सिंह ने गाँव में घोषणा करवा दी, कि ग़ैर खेतिहर जमीन मालिकों को जमीन बेचने की छूट नहीं दी जायेगी. यह घोषणा गरीबों और गाँव के किसानों के हक़ में थी किंतु लौलाख महतो इस आँच पर पिछड़ों की राजनीति गर्म करने लगते हैं. इस निर्णायक लड़ायी से पहले ही नन्हकू सिंह की हत्या हो जाती है और गरीबों की लड़ायी नेत्रत्व खो जाने के कारण कुछ अरसे तक ठिठक कर रह जाती है.
मुख्य धारा की राजनीति के साथ साथ ही कुंवरपुर में ईर्ष्या स्वार्थ और प्रतिशोध की धारा भी बह रह रही है. नन्हकू सिंह की हत्या के बाद कुंवरपुर में नया समीकरण बनने लगता है. नन्हकू सिंह की पत्नी अपने पुराने प्रतिद्वंदी लौलाख महतो से हाथ मिला लेती है. हालाँकि यह नया समीकरण नन्हकू सिंह की पत्नी को बहुत मँहगा पड़ता है और इसके एवज़ में जान तक गँवानी पड़ती है और इतना सा ध्यान रखने की ज़रूरत है कि दमयंती फ़िलहाल इन सब हलचलों से दूर मंधाता मिश्र के यहाँ अपनी पढ़ाई में व्यस्त है. नन्हकू सिंह की पत्नी की हत्या से नौलाख महतो का दलितों से मोह भँग हो जाता है और वह नन्हकू सिंह के सहकर्मी दयाशंकर पांडेय से उम्मीदें जोड़ने लगते हैं.
पिछड़ों की राजनीति में दलितों को अपना हित नहीं दिखता है. दमयंती ने दलितों के लिये एक स्कूल खोला था और इस स्कूल को बंद करवाने के लिये सवर्ण और पिछड़ी जातियाँ खुल कर दलितों का विरोध करती है. कारण स्पष्ट है-दोनों के पास ही ज़मीनें और सम्पत्ति है.
धीरे धीरे दमयंती बौद्धिक बहसों से थककर नक्सलवाद की शरण में चली जाती है. संगीनों के सामने बहस अधिक देर तक टिक भी नहीं सकती न उससे गरीबों का पेट भर सकता है.
प्रमोद कुमार तिवारी ने अपने इस उपन्यास में ग़रीबों के शोषण का बहुत सूक्ष्म ब्योरा दिया है. सरकार गरीबों के लिये जो योजनायें बनाती है. अधिकारी वर्ग उसी के माध्यम से ग़रीबों का शोषण करने लग जाता है. कई बार प्रशासन और पुलिस नेताओं के आतंक के आगे लाचार भी हो जाती है. राजनीति ने पूरी व्यवस्था को रीढ़विहीन बनाकर रख छोड़ा है. हार कर दलित और ग़रीब अपनी भूख मिटाने के लिये लड़ाई में उतर जाते हैं जब तक जीवन है, तब तक उम्मीद भी है. ग़रीबों और दलितों की रगों में फ़ैल रहे वामपंथ की आग से सवर्णों में आतंक सा व्याप्त है. पुलिस का व्यवहार भी बदल जाता है. लेखक ने वामपंथ की हिंसक और अहिंसक दोनों ही धाराओं को विकसित होते दिखाया है. उपन्यास में एक के ऊपर एक सूक्ष्म परतें हैं जिन्हें अलग से देखने की ज़रूरत है.
© 2009 Bipin Kumar Sharma; Licensee Argalaa Magazine.
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नाम: बिपिन कुमार शर्मा
उम्र: 52 वर्ष
जन्म स्थान: पटना
शिक्षा: एम. ए. (पटना विश्वविद्यालय); एम. फिल. (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली)
संप्रति: जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पी-एच. डी. के अंतर्गत शोधरत
प्रकाशित रचनायें: अब तक भारत की सभी प्रमुख पत्र -पत्रिकाओं में
कवितायें: लगभग 50 कविताएँ
कहानियाँ: नौ कहानियाँ
लेख: लेख, पुस्तक-समीक्षा एवं साक्षात्कार प्रकाशित
संपर्क: 224, झेलम, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067