इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
इतिहास
और सप्ताह का हमारा यह दिन
और विद्युत चुंबकीय भविष्य
देख सकते हो इन्हें
जैसे ये तीन स्वार्गिक घोड़े हों
किसी पावन रथ से जुते
और इस रथ का नाम है
मातृभूमि,
ज़रूर कूदो, मेरे बेटे
कूदो
फाँद डालो तिरस्कृत अपावन को!
और दौड़ो
भविष्य की ओर दौड़ने वाली गति
और आने वाले आविष्कारों के मुकाबले
पर अब तक जो कुछ कहा गया है
रहने दो इसे हमारे बीच
न न लोगों के आगे दर्प न करो
कौन है रोटी का निर्माता....
अन्यथा ठीक ही होंगे वे
तुम्हारा मखौल उड़ाने में.
कितने भयंकर हैं
कितने
शब्द
जिन्हें उच्चारते हैं सिर्फ
स्वाभवत:
- मैं तुम्हे प्यार करता हूँ
- मैं ज्यादा ही
- सच कसम उठाता हूँ तुम्हारे सामने !
- हाँ, दैविक ईमानदारी से पूरित मी शब्द
ये तो हमारे खुद के सत्यापित
हमारी ही मृत्यु के मुचलके हैं
और फिर इनके बाद कोई अवसर नहीं
सुनवाई का
मृत्यु
मृत्यु
मृत्यु
चाहना भी ललक से मृत्यु
चुंबनों से
नहीं
बेहतर है तुम पड़े रहो निस्पंद
चुप जैसे आदर्श ठंडापन हो
लावण्य भरा.
औपचारिक खुशी.
ऊब गया हूँ मैं.
युवा दल
नहीं हूँ अब तुम्हारा सदस्य
पर तुम तो रहते हो
निश्चित ही मुझमें.
जैसे गेहूँ निबद्ध है रोटी में
जैसे सूर्योदय
दिन में घुला-मिला है
तुम हो मुझमें
एक पवित्र मेखला की तरह
हर ईमानदार दुनिया खोलने के लिए.
क्योंकि मैं तुम्हारा सदस्य हूँ
भविष्य कहता है मुझे बिरादर
यह न गीत है
न नृत्यगान
यह नियति है.
झेलता हूँ फैसला
अभिशप्त हूँ आजीवन युवा होने के लिए
ऐसे ही सदा
अँधेरे और काँटों के बीच.
हमारी शताब्दी को नहीं रूचता
प्रेम पत्र लिखना
अगर कोई लिखता भी है तो
बाद में कर देता है उसे ध्वस्त.
एक लड़की और एक लड़का
पूछते हैं मुझसे
क्या खाली हैं ये दो कुर्सियाँ
और बैठ जाते हैं मेरी मेज पर
और मँगाते हैं खुद के लिए दो कॉफी
और हो जाता हूँ मैं दोनो के लिए
उपस्थितिहीन/अदृश्य
पर मैं सोच रहा हूँ
क्या हैं वे?
कामगार?
छात्र?
आजकल पहले ही कठिन है अनुमान लगाना
खूबसूरत हैं वे पुरानी मूर्तियों की तरह
पर दु:खी हैं
गर्म पेय में डुबोते हैं
वे अपने शब्द-
सूखे खाद्य.
कहाँ है मेरा कल लिखा पत्र?
पूछती है वह.
टटोलने लगा वह
लंबी डायरी जिसमें थे कागज और टिकट
आखिरकार फेंक ही दिया लिफाफा
ठीक जैसे तनाव में बिल अदा करता है
झुकी वह और पढ़ने लगी
जो लिखा गया था. शायद बीते कल ही
अपने ही सिगरेट से तिड़तिड़ाते उसके बाल
कुछ जले भी.
कई दफ़े तह किया उसने पत्र
और चार हिस्सों में फाड़ा
फिर फैला दिए.
युवक के हाथ उठे
पर रुक गये:
बाहर चले गये वे लोग
और मैं खुद दिखने लगा अपने
अस्तित्व में
और रह गया एकाकी
मानव आवेगों के इन छोटे टुकड़ों के बीच
जोड़ने चाहे मैंने वे टुकड़े फिर
पर नामुमकिन-सा था यह.
कतार बाँधे जम गये तर्कहीन शब्द
अकेले,
फिर से संबद्ध न किए जाने वाले
भयंकर...........
कविताहीन शब्द
बस धूमकेतु राख........
इतनी आसानी से
क्यों करते होंगे हम सितारों को ध्वस्त
अपनी सर्वाधिक कोमल भावनाएँ?
छोड़ जाते हैं पीछे
विशाल चिन्ह
विजित मार्ग
विशाल निर्मितियाँ.
पर लोगों के बीच मामूली मानवी प्यार
उसका कोई स्मारक नहीं
छिपा देता है वह पदचिन्ह
ध्वस्त कर देता है तमाम सुराग
एक जासूस की तरह
कामना करें कि कम से कम भविष्य के लिए
वह छोड़ दे
कोई गोपनीय संदेश.
मिकोला सिन्गेव्स्की ने भेजा था
एक शुभकामना पत्रक
वह था शाश्वत दिनमान पत्र
दीखता था जैसे सफर का यात्रा पत्र हो
नहीं जानता कहाँ से कहाँ तक का.
पर वह तो तमाम दिनमानों का
स्वामी था
और मैं
एक पत्रक का स्वामी
इस आलेख का अधिपति
नहीं समझता कुछ भी
और ट्रायल घोड़ों के बावजूद
विश्वास है इस पर
क्यों यह उपहार है
यह कर सकता अलग और मिला भी सकता है
यह मैत्रीमय है
यह है समग्र विश्व..........
शुक्रिया
दूरस्थ मित्र
पहचानता हूँ तुम्हारी मंगल कामना.
हो नहीं सकता कोई भी
स्वयं शाश्वत
पर दे तो सकता है शाश्वतता
एक उपहार के रूप में.
मूल लेखक: ल्यूबोमीर लेवचेव (बुल्गारियन कवि)
अनुवादक: गंगा प्रसाद विमल, दिमितर पोपोव
© 2009 Ganga Prasad Vimal; Licensee Argalaa Magazine.
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नाम: गंगा प्रसाद विमल
उम्र: 86 वर्ष
जन्म स्थान: उत्तरकाशी, उत्तरांचल
शिक्षा: पी-एच. डी. पंजाब विश्वविद्यालय
अनुभव: उस्मानिया विश्वविद्यालय में 1963 से अध्यापन, हैदराबाद.
संप्रति: कई समितियों, संस्थाओं के सलाहकार एवं पत्रिकाओं में संपादकीय योगदान.
कविता संग्रह: विज्जप (1967), बोधि बृक्ष (1983), इतना कुछ (1990), तलिस्मा (काव्य एवं कथा) 1990, सन्नाटे से मुठभेड़ (1994), मैं वहाँ हूँ (1996), अलिखित-अदिखत (2004), कुछ तो है (2006),
कहानी संग्रह: कोई शुरुआत (1972), अतीत में कुछ (1973), इधर उधर (1980), बाहर न भीतर (1981), चर्चित कहानियाँ (1983), खोई हुई थाती (1994), चर्चित कहानियाँ (1994), समग्र कहानियाँ (2004),
उपन्यास: अपने से अलग (1969), कहीं कुछ और (1971), मरीचिका (1978), मृगांतक (1978)
लेख: अनेकों लेख तमाम पत्रिकाओं में प्रकाशित.
संपादित पुस्तकें: अभिव्यक्ति (1964), अज्ञेय का रचना संसार (1966), मुक्तिबोध का रचना संसार (1966), लावा (1974), आधुनिक हिंदी कहानी (1978), क्रांतिकारी समूहगान (1979), नागरी लिपि की वैज्ञानिकता (नागरी लिपि परिषद नई दिल्ली), वाक्य विचार (2002).
अंग्रेज़ी अनुवाद: हेयर एण्ड देयर एण्ड अदर स्टोरीज़ (1978), मिरेज़ (उपन्यास) 1983, तलिस्माँ (काव्य संग्रह) 1987, हू लीव्स व्हेयर एण्ड अदर पोएम्स (2004).
हिन्दी अनुवाद: गद्य-समकालीन कहानी का रचना विधान (1968), प्रेम चंद (1968), आधुनिक साहित्य के संदर्भ में (1978).
अन्य भाषाओं से अनुवाद: दूरंत यात्रायें (एलिजाबेथ बाग्रयाना) 1978, पितृ भूमिस्च (हृस्तो वोतेव) 1978, दव के तले ( ईवान वाज़ोव का उपन्यास) 1978, प्रसांतक (विसिलिसी वित्सातिस की कविताएँ) 1979, हरा तोता(मिको ताकेयामा का उपन्यास) 1979, जन्म भूमि तथा अन्य कविताएँ (एन. वाप्तसरोव की कविताएँ) 1979, ल्यूबोमीर की कविताएँ (1982), लाचेज़ार एलेनकोव की कविताएँ (1983), उद्गम (कामेन काल्चेव का उपन्यास) 1981, बोज़ीदोर बोझिलोव की कविताएँ (1984), स्टोरी ऑफ़ योदान योवज्कोव (1984), पोएम्स ऑफ़ योदान मिलेव (1995), तमामरात आग (1996), मार्ग (पोएम्स ऑफ़ जर्मन दूगन ब्रूड्स)2004.
सम्मान एवं पुरस्कार: तमाम राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित.
संपर्क: 112, साउथ पार्क अपार्टमेंट, नई दिल्ली - 110019