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इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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स्वर्ण स्तंभ

किशोरी लाल

अनिल पु. कवीन्द्र द्वारा डॉ. किशोरी लाल का साक्षात्कार

अनिल पु. कवीन्द्र: हिंदी के गिरते हुए स्तर को वर्तमान समय में किस तरह के प्रारूप की जरूरत है?

डॉ. किशोरी लाल: हिंदी का समृद्ध वांगमय भक्ति और वीर काव्य के रूप में देखा जाता है. आज हिंदी का अध्येता इन दोनों को भूलता जा रहा है. अतीत के सबसे महत्वपूर्ण साहित्य के अध्ययन - अध्यापन से ही हिंदी का गिरता हुआ स्तर ऊँचा किया जा सकता है

अनिल पु. कवीन्द्र: नई कविता को वर्तमान परिवेश में किस रूप में देखा जाना चाहिए?

डॉ. किशोरी लाल: नई कविता का जन्म सामयिक परिवेश दृष्टि से भी जुड़ा हुआ है. आज का जो परिवेश है उसमें भौतिकवाद स्वर उभर कर आ रहा है. और सबसे बड़ी समस्या आर्थिक समस्या है. आर्थिक समस्या को दृष्टि में रखकर नई कविता का सर्वांगीण विकास संभव है. समाज विभिन्न जातियों,, वर्गों और विभिन्न मतों में विभाजित हो गया है. आज की राजनीति का मानदंड जातिवाद और संकीर्ण सामाजिक विसंगतियाँ हैं. नई कविता का विषय इनको अपनाने पर ही अपने उद्देश्य की पूर्ति कर सकता है. और आवश्यकता इस बात की है कि नई कविता जन मानस को प्रभावित करे. मानवीय संवेदना को संगस्पर्श करे. केवल शब्दों के वैचित्र्यपूर्ण वाग्जाल से भी कविता नहीं होती. कविता हृदय के उद्गार अगर नहीं है तो वो किसी की सीमा का अतिक्रमण करती है. और नई कविता नये विषयों को अपनाती हुई भी कविता के जो गुण हैं उनको अधिकाधिक ग्रहण करे. क्योंकि कविता में आज के यथार्थवादी दृष्टिकोण की सशक्त अभिव्यक्ति हो, कविता को बौद्धिक और अधिक यांत्रिक नहीं बनाया जा सकता यदि कविता यांत्रिक बन जाती है तो उसमें उसकी प्रभाव क्षमता उत्तरोत्तर क्षीण होती जाती है.

अनिल पु. कवीन्द्र: नई कविता और मध्ययुगीन कविता के बीच अंतराल और वैशिष्ट्य पर विचार प्रकट करें?

डॉ. किशोरी लाल: वस्तुत: आधुनिक कविता का विकास प्राचीन कविता से पूर्णत: विक्षिन्न हुआ है. न हो सकता है, परंपरा को छोड़कर कोई भी कविता यदि जन्म लेती है तो वह एक अद्भुत और वायवीय प्रयास होगा. टी. एस. इलियट ने भी परंपरा को महत्व दिया है. परंपरा से जुड़कर ही नई कविता या आधुनिक कविता, कविता की सार्थकता की दृष्टि से खरी उतर सकती है. प्राचीन कविता की बहुत से तथ्यों को लेकर ही नई कविता का स्वरूप निर्मित हुआ है. पंत, प्रसाद, निराला, महादेवी, दिनकर आदि की रचनाओं में भक्ति और रीतिकाल की बहुत सी विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं. बहुत से अनुसंधायक इसकी खोज में लगे हुए हैं. और इस संबंध में पर्याप्त अनुसंधान भी हो चुके हैं. परंपरा से जुड़कर ही कविता के इस अंतराल को मिटाया जा सकता है. परंपरा से अलग होकर टूटकर कोई कविता अपने स्वतंत्र अस्तित्व भले ही कायम कर ले परंतु वह एक विलक्षणता के अतिरिक्त उसकी अभिधा और लक्षणा के अतिरिक्त अन्य संज्ञा नहीं दी जा सकती.

भारतीय वांग्मय इस बात का प्रमाण है कि कविता का विकास परंपरा से ही होता रहा. परंपरा को तोड़कर कविता अपनी मौलिकता का इजहार कर सकती है, मौलिकता का उद्घाटन कर सकती है. परंतु पूर्ण रूपेण परंपरा से विरहित कविता कविता नहीं कही जा सकती. आज कविता के अध्येयता कम हो गये हैं. कारण यह है कि कोई भी कविता जब तक कंठ तक नहीं पहुँचती वह कविता स्थायित्व नहीं प्राप्त करती. आज कविता केवल पठन की वस्तु है. आज उसे हम आत्मसात नहीं कर पा रहे हैं. वह कंठ तक नहीं पहुँच रही है. पुरा काल में चाहे संस्कृत की कविता हो उर्दू की कविता हो या हिंदी की कविता रही हो. लोगों को काफी स्मरण थी.

छंद के आवरण को हटा कर कविता आज नग्न अवस्था में है. और कविता और गद्य का अंतर समाप्त हो गया है. प्रोज स्टाइल में कविता हो गई है, उसमें भी भावों की गहराई, भावों की सूक्ष्मता का अभाव दृष्टिगत होता है. कविता में जो एक म्युजकल स्वीटनेस, संगीतात्मक प्रवाह, और माधुर्य रहा करता था वह अब समाप्त हो गया है. इसलिए आज की कविता को कविता की कसौटी पर कसने पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह कविता है. पश्चिम की नकल या अनुकृति में रची गई इस प्रकार की कविता का महत्व केवल काग़ज के पुष्प से अधिक नहीं है. जिसमें सुरभि का पूर्ण अभाव है. जब तक मध्ययुगीन काव्य चेतना या आज की काव्य चेतना संपृक्त नहीं होगी तब तक कविता का अंतर दूर नहीं होगा.

मध्य कालीन और आधुनिक कविता को जोड़ने के लिए आवश्यक है कि दोनों धाराओं को एक सूत्र में जोड़ा जाए. कुछ मनुष्यों, आलोचकों ने प्राचीन काव्यधारा को एक सूत्र में जोड़ने का प्रयास किया है. आचार्य सूर्य बलि सिंह ने इस संबंध में एक पुस्तक की रचना की है जो अत्यंत महत्वपूर्ण है.

अनिल पु. कवीन्द्र: पूँजीवादी सामाजिक, सांस्कृतिक संरचना में साहित्य की भूमिका क्या होगी?

डॉ. किशोरी लाल: पूँजीवाद और समाजवाद दो भिन्न इकाइयाँ हैं. व्यक्तिगत चेतना की अभिव्यक्ति या व्यक्तिवाद का आग्रह पूँजीवाद का सृजन करता है. समष्टिगत चेतना समाजवाद को जन्म देती है. आज विलासिता के युग में भौतिकवादी परंपरा के साथ व्यष्टि और समष्टि का द्वंद्व पर्याप्त सक्रिय है. साहित्य किसी व्यक्ति विशेष की विभूति या रचना नहीं होती. उसके लिए मानवीय धरातल की अपेक्षा होती है. जो साहित्य व्यापक मानवीय धरातल को ग्रहण नहीं करता अपनाता नहीं है वह साहित्य जनहित के लिए श्रेयष्कर नहीं माना जाता.

पूँजीवादी व्यवस्था और समाजवादी व्यवस्था यह दो सांस्कृतिक इकाइयाँ हैं जिनमें हमारी वृत्तियाँ सिमटती चली जा रही हैं. एक दूसरे के लिए आक्रामक सिद्ध हो रहा है. आवश्यकता यह है कि इन संकीर्ण मानदंडों से अलग हटकर साहित्यकार अपनी रचनाधर्मिता का एक व्यापक दृष्टिकोण ग्रहण करे. रचना को किसी विशिष्ट समाज या वर्ग में सपिंडित नहीं किया जा सकता. उसकी दृष्टि व्यापक होनी चाहिए. आज रामचरितमानस पूँजीपतियों के लिए नहीं है. पूँजीपति भी उसका रस प्राप्त करते हैं विश्वजनीन भावनाओं का जो वांग्मय प्रतिनिधित्व नहीं करता वह थोड़े समय में ही नष्ट हो जाता है.

पूँजीवाद एक विशेष व्यवस्था है. समाजवादी एक विशेष व्यवस्था है. समाजवाद के महान कल्याणमूलक दृष्टिकोण को लेकर ही साहित्य अपना मार्ग प्रशस्त कर सकता है. समाजवाद यदि कुछ सिद्धांतों तक ही सीमित रहेगा तो वह साहित्य के लिए अनुपयोगी सिद्ध होगा. तो हमारी मनीषा यह सारस्वत साधना मंगल के लिए होती है. व्यक्तिगत स्वार्थ - चाहे समाजवाद हो, चाहे पूँजीवाद हो, वह बहुजन हिताय का द्योतक या बोधक नहीं हो सकता. भारतीय संस्कृति गंगा के उस परिवार के भांति है जिसमें यावत मानव जात युगों से डुबकियाँ लगाती रहीं.

भारत की महान उपलब्धियों का मूल कारण हमारी सांस्कृतिक चेतना है. उस सांस्कृतिक चेतना से अलग रह कर भारत की कोई भी जात, कोई भी समाज, कोई भी वर्ग, उन्नति का मार्ग नहीं प्रशस्त कर सकता. नेशनल इंटिग्रेशन अर्थात राष्ट्रीय एकता के मूल में भी भारत की सांस्कृतिक विचारधारा सहायक हो सकती है. धर्म, दर्शन, समाज, राजनीति सभी भारतीय सांस्कृतिक उदात्त आदतों से प्रभावित हैं इसमें दो मत नहीं हैं. संस्कृति की अबाद धारा को हम उसी प्रकार विभाजित नहीं कर सकते जैसे व्यापक आकाश को कहीं बांधा नहीं जा सकता. आकाश अपनी अनंतता में भी सदियों से माना जाता रहा. हमारी संस्कृति भी अपनी अनंतता और गहराई के कारण आज भी उसी दृष्टि मान्य है.

अनिल पु. कवीन्द्र: हिंदी साहित्य में आपके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. इस अमूल्य योगदान में आप अपनी समस्याएँ और अपने अनुभव हमारे सामने रखें?

डॉ. किशोरी लाल: हिंदी साहित्य का जो अतीत है वो काफी समृद्ध और काफी विकसित है. भक्तिकाल में सूर, तुलसी, रीतिकाल में देव बिहारी, दमासर, केशव की रचनाएँ अपने आप में अद्वितीय, महान, बेजोड़ और अप्रतिम हैं. आधुनिक काल का समस्त वांग्मय भक्ति और रीतिकाल की तुलना नहीं कर सकता. हमने इसी दृष्टि से भक्ति और रीतिकाल की गहराईयों को समझने का यत्किंचित प्रयास किया है. हमारी आलोचनात्मक पुस्तकें हों या संपादित पुस्तकें हों उसमें इसी प्रकार की दृष्टियाँ परिलक्षित होती हैं. चुकती हुई परंपरा को हमने अक्षुण्य रखने के लिए थोड़ा बहुत इसी दिशा में प्रयास किया है और करता रहूँगा.

मेरी साहित्य साधना की लगभग अर्द्ध शताब्दी बीत चुकी है. आज विद्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों में प्राचीन पाठ्यपुस्तकें हटाई जा रही हैं. अध्येयता कम होते जा रहे हैं, अध्यापक कम होते जा रहे हैं ये विकास के शुभ लक्षण प्रतीत नहीं होते. प्राचीन कहकर हमने उन्हें त्याग दिया है. वस्तुत: आज जितना साहित्य प्रकाशित है, उससे कहीं अधिक साहित्य अप्रकाशित है. पांडुलिपियों के रूप में राजाओं की लाइब्रेरी में बहुत सा अमूल्य साहित्य सुरक्षित है. आवश्यकता है कि उसके अध्येयता, उसके मरमजन ऐसे साहित्य के बेढ़न को खोलें. दीमक और कीड़े से नष्ट होती हुई पांडुलिपियों की संरक्षा करें यही उनका सबसे बड़ा साहित्यिक उत्तरादियत्व और कर्तव्य होगा. हमने कुछ प्राचीन हस्तलेखों का उपयोग विनियोग इस दिशा में किया है. और किसी सिद्धांत विशेष का प्रतिपादन न करते हुए हमने सहित्य के विशाल चित्रफलक पर कुछ चित्रों को उकेरा है. उनमें रंग भरा है. ऐसे चित्रों में दीप्ति कितनी है और हमें कितनी सफलता मिली है यह पुराने साहित्य का मरमजन और अध्येयता ही इसका मूल्यांकन कर सकेगा.

हमें प्रसन्नता होगी कि जिस साहित्य को लाला भगवानदीन, डॉ. श्यामसुंदर दास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, डॉ. नागेन्द्र जैसे मनीषियों ने सँवारा सुधारा और उसमें अपनी पूरी शक्ति लगाई वह साहित्य आज के अध्येयताओं से दूर होता जा रहा है. उसे लोग भूलते जा रहे हैं. यह शुभ लक्षण नहीं है. प्राचीनता और नवीनता दोनों का अन्योन्याश्रित संबंध है. नवीन दृष्टियाँ प्राचीनता की प्रतिक्रिया में ही जन्म लेती हैं. मैंने साहित्य के इसी प्रकार के मानदंड को अपनाया और इसी मानदंड से साहित्य का मूल्यांकन भी करता हूं. युग की चेतना को लोग भूल कर अपने युग की चेतना से जोड़ना चाहते हैं. यह प्रक्रिया कहाँ तक लाभकर है, कहा नहीं जा सकता. श्रृंगार को आज के संदर्भ में लोग अनुपयोगी समझते हैं. श्रृंगार एक व्यापक चेतना है जो केवल नायक - नायिका भेद तक ही सीमित नहीं है बल्कि समस्त दांपत्य जीवन के विकास में श्रृंगार का महत्व एवं योगदान रहा है. सारा विश्व श्रृंगार मय है, श्रृंगार से अलग रहकर जड़ चेतना किसी भी सत्ता का विकास संभव नहीं है, उस श्रृंगार को संकीर्ण दृष्टि से देखना बहुत स्पृहणीय नहीं समझता. न मुझे यह दृष्टि प्रिय है. एक व्यापक धरातल पर ही भक्ति और रीति का मूल्यांकन हो सकता है.

आज मार्क्सवादी दृष्टि हो, या पूँजीवादी दृष्टि हो एक दूसरे को अच्छी दृष्टि नहीं देखते. साहित्य रचनाकार के हृदय की स्वतंत्र अनुभूतियों की अभिव्यक्ति है. उन्मुक्त हृदय से जो उद्गार निकलते है. वही साहित्य का सृजन करते हैं. यदि हम साहित्य को बांध देंगे तो वह साहित्य पंगु होगा, प्रदूषित होगा. उसी प्रकार जिस प्रकार नदियों का जल जमाव होने पर अपना विकास खो देता है. नदियाँ बंध जाती हैं. नदियों का बंध जाना अच्छा नहीं होता. उनकी धाराएँ बराबर गतिशील हैं. साहित्य में भी हम किसी धारा को किसी सिद्धांत में नहीं बाँध सकते. अगर बाँधेंगे तो धारा दूषित हो जाएगी. वो स्थान विशेष, वर्ग विशेष, धर्म विशेष तक ही सीमित रह जाएगी.

आज शेक्सपीयर इंगलैंड में ही नहीं भारत में भी पढ़े जाते हैं, कालिदास भारत में ही नहीं इंगलैंड में भी पढ़े जाते हैं अपने शाश्वत गुणों के कारण. किसी वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व इन रचनाओं में नहीं किया उनमें व्यापक चेतना थी. जो मानवता को सम्मान करती थी. जिनमें मानवीय गुण नहीं है, मानव जाति को अलग रखकर जिसकी सर्जना हुई है वह बहुत स्थायी और अमर नहीं हो सकता. मैंने इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर अपनी साहित्य सर्जना को एक नया आयाम देने की कोशिश की है, अभ्यास किया है. अब वह प्रयास कितना सफल है नहीं कहा जा सकता. आवश्यकता है कि आप काव्य शास्त्र को नई दृष्टि से देखें, नई रचनाओं में भी काव्य शास्त्र को जोड़ें. काव्यशास्त्र का इस दृष्टि से पल्लवन हो, विकास हो जो आज लोग भूलते जा रहे हैं. इस आपाधापी जीवन में साहित्य की प्रधानता हो, साहित्यकार को इसकी जरूरत है. मूक साधना जो होती थी और उन्हें जीवन में माननीय तुलसीदास आज जो जंगल में साहित्य की साधना करते थे इस कोटि की साधना हमारे लिए आदर्श है, उत्प्रेरक है.

आज हम इसी प्रकार के साहित्य को पढ़ने के लिए आग्रह करते हैं कि पढ़िए. प्रज्ञा के चक्षु सूरदास ने हजारों पदों की रचना की जिसकी गहराई में उतरने का प्रयास लोग नहीं कर पाते, भूलते जा रहे हैं. श्रम नहीं कर पा रहे हैं. तुलसी ने संत जीवन व्यतीत करते हुए बिल्कुल साहित्य की रचना की. राम के चरित्र को आदर्श बनाकर आदर्श समाज और आदर्श से संस्कृति की रचना की. नवसंस्कृति ने जन्म ग्रहण किया. मध्यकाल की बर्बरता से निकाल कर मानवता का विकास किया जब हमारे देश में जतीयों का आक्रमण हो, सांस्कृतिक आदर्श लुप्त जा रहे थे, उस समय इस महाकवियों ने, इन रचनाकारों ने, इन संतों, इन साधकों ने हमारे देश की रक्षा की. हमारे धर्म, समाज और हमारे रहन सहन को विलुप्त होने से बचाया. मैं इसी दिशा में कार्यरत हूं और नई पीढ़ी को मेरी यह सलाह है कि वो मतमतांतरों और सिद्धांतों में न फंस कर जो हमारी निधियाँ हैं, विभूतियों हैं, अतीत में उनके झाँकने का, देखने का प्रयास करें और यही साहित्य और समाज से जुड़ने का अच्छा संकल्प होगा और राष्ट्र को ऐसे अविचलन परिचलन द्वारा ही नई दिशा दे सकेंगे. नया आयाम उन्हें मिलेगा.

अनिल पु. कवीन्द्र: समसामयिक समय में नये रचनाकार और उनकी रचना प्रक्रिया यथार्थ धरातल के कितने करीब है?

डॉ. किशोरी लाल: वस्तुत: आज का वांग्मय साहित्य चाहे वह कथा साहित्य हो, चाहे नाट्य साहित्य हो, और चाहे वह संस्मरण या यात्रा साहित्य हो सबमें यथार्थवादी दृष्टि उभरकर आ रही है. आज की रचना में यथार्थ का नग्न चित्र ज्यादा देखने को मिलता है. समसामयिक साहित्य में यथार्थ का नग्नचित्र, दहेज प्रथा, समाज की कुरीतियाँ, शोषक और शोषित वर्ग का अन्याय, मूलक धारणा आज के साहित्य में यही वर्ण विषय बन गया है. आज यांत्रिक युग से भी साहित्यकार प्रभावित हुए हैं. जो आज की वैज्ञानिक उपलब्धियाँ हैं उन्हें भी साहित्य में समेटा जा रहा है. मानव आज कितनी दूर पहूँच चुका है, और उसकी अंतर्राष्ट्रीय दूरी कितनी कम हो गई है, कितना वो देश विदेश से जुड़ गया है यह आज के साहित्य में देखने को मिलता है, और जुड़ा है चाहे वह अमेरिका का साहित्य हो, चाहे इंगलैंड हो, आज साहित्यिक आदान - प्रदान खत्म हो रहा है. चाहे वो कथा साहित्य में हो, चाहे समीक्षा में हो, चाहे नाटक की दृष्टि में आज समसामयिक जो साहित्य है वो बहुत कुछ पाश्चात्य जगत से प्रभावित है और उसमें एक जीवन में जो संघर्षशीलता है युद्ध की जो पिपासा है वो बहुत जागृत हुई है.

गाँधीवाद, साहित्य, अहिंसा का प्रतीक हुआ. साहित्य में आज वो नष्ट हो चुका है. रक्तपात, अत्याचार, शोषण, व्याभिचार, नारियों का अपहरण, बच्चों की हत्या, यह समाज के चित्र है यही आज के साहित्य में आ रहा है. आज का मानव आशावादी उतना नहीं है जितना निराशावादी है. उसकी निराशावादिता की झलक इसमें मिलती है. उसका साहित्य निराशा के भ्रूण में पल रहा है. लगता है कि यथार्थवादी चेतना छटपटा रही है उसे कोई मार्ग नहीं मिल रहा है. भारतीय आदर्शवादिता को भूलकर साहित्य आज का दिशाहीन हो रहा है. उसमें भावनात्मक एकता कम हो रही है. यथार्थ का चित्र खींचते आदर्श के दामन को वो छोड़ता जा रहा है. यथार्थ के साथ आदर्श नहीं जुड़ता तो वह एकांगिकता को जन्म देता है. एकांगी दृष्टिकोण को पनपने का अवसर प्रदान करता है. आज समसामयिक साहित्य अपनी दृष्टि से जहां विकास की ओर जा रहा है वहीं उसके पतन के भी लक्षण दृष्टिगत हो रहे हैं, अपनी एकांगिकता के कारण यथार्थ का वो नग्न चित्र वो देता है लेकिन उसे निराकरण करने का व्यापक संदेश उसके पास नहीं है.

महत्व का विषय है कि उसे आदर्शवादिता और निराकरण का कोई न कोई मार्ग निकालना पड़ेगा. विध्वंस से राष्ट्र का कभी निर्माण नहीं होता. विध्वंस मूलक प्रवृत्तियों को यदि साहित्य में स्थान मिलता है तो साहित्य बहुत स्थायी नहीं रह सकता. वो साहित्य जन जीवन के लिए अमृत या पियूष नहीं हो सकता. हमें आवश्यकता है कि हम यथार्थ का चित्र खींचते समय जो रंग भरें वो रंग मानवीय संवेदना से परिपूर्ण हों. उसमें मानवीय अनुभूतियाँ दीप्तिमान होती रहें. तभी आधुनिक साहित्य, आज का साहित्य, समसामयिक साहित्य, जनता का साहित्य हो सकेगा. किसी वर्ग विशेष का साहित्य न होकर भी व्यापक मानव समुदाय का साहित्य होगा, उसका विशिष्ट अंग होगा.

अनिल पु. कवीन्द्र: सेवानिवृत्त होकर आजकल आप किस तरह के कार्यों में व्यस्त हैं?

डॉ. किशोरी लाल: मैं ऐसी पांडुलिपियों के संपादन में लगा हूं जो अभी तक प्रकाशित नहीं हुई हैं. और जिनके महत्व से हिंदी जगत बहुत परिचित नहीं है. ऐसे साहित्य के प्रकाशित होने पर हमारी साहित्यिक परंपरा में एक नई कड़ी जुड़ेगी और साहित्य के इतिहास के पुनर्मूल्यांकन का एक लोक प्राप्त होगा. अभी तक श्रृंगार काल की रचनाओं का सौंदर्यशास्त्र और मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में बहुत अधिक नहीं लिखा गया. मैं चाहता हूं कि ऐसे साहित्य पर विचार किया जाए. ऐसी दृष्टि से विचार किया जाए कि इन रचनाओं को लोग मनोविज्ञान की दृष्टि से समझें. सौंदर्यशास्त्र की दृष्टि से समझें और कुछ ऐसी रचनाएँ हैं जिन्होंने इन दोनों दृष्टियों से देखने की आवश्यकता है.

भारतीय मध्यकालीन समाज किस प्रकार का था कितना उसका अधोपतन हुआ था, कितना उत्थान हुआ था जब तक हम उसका वास्तविक रूप या चित्र हमारे सामने नहीं आ सकेगा मैं चाहता हूं कि जो दृष्टियाँ अभी तक साहित्य में नहीं आ सकीं और जिन दृष्टियों से साहित्य का अवलोकन मंथन नहीं हुआ है उन्हें इस दृष्टि अवलोकन मंथन किया जाए. मैं यही समझ कर प्राचीन साहित्य को पढ़ता हूं और यह प्रयास करूँगा कि कुछ ऐसी चीजें बाहर आएँ जिन्हें पढ़कर नई पीढ़ी उसके महत्व को समझें और स्वयं इस परंपरा को जो विलुप्त हो रही है उसे बचाए. आज न तो प्रसाद जैसा आधुनिक युग का महान रचनाकार रहा है न मध्य युग में देखने को मिलता है. आधुनिक काल में भी मैं चाहता हूं कि कोई ऐसी कृति दी जाए जिसे लोग पढ़ें और समझें. प्रसाद तक आधुनिक काल काफी चर्चित रहा और अध्ययन अध्यापन होता रहा, किंतु अब जितना अध्ययन हो चुका उसके आगे लोग नहीं पढ़ रहे.

मेरी धारणा है कि प्राचीन और नवीन रचनाकारों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए और एक काल और प्रसाद का तुलनात्मक अध्ययन हो. आँसू में कितने घनानंद के भाव, पंत में, महादेवी में, बिहारी कितनी पंक्तियाँ हैं, निराला में इस दृष्टि से मेरी जो धारणा है, उसका अध्ययन होना चाहिए और मैं थोड़ी बहुत इस प्रकार की रचनाओं को पढ़ता हूं और महत्व देता हूं अब मेरी ऊर्जा उत्तरोत्तर क्षीण हो रही है, मैं अब क्या कर सकता हूं. अर्द्धशताब्दी तक मैं लगा रहा साहित्य में जो कुछ थोड़ा बहुत साहित्य को दिया, नई पीढ़ी के उपर यह उत्तरदायित्व है कि वो पढ़े और इस महान भार को सम्मान करे. केवल यश और इच्छा के लिए, प्रचार प्रसार के लिए नहीं बल्कि शुद्ध साहित्यिक दायित्व को, दृष्टि को ध्यान में रखकर अग्रसर हो और अपने साहित्यिक अवदान से हिंदी जगत को लाभान्वित करे, मेरा तो यही संदेश रहेगा नई पीढ़ी के लिए.

© 2009 Kishori Lal; Licensee Argalaa Magazine.

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