इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
मैंने बचपन से ही परीकथा वाले 'भारत' का सपना देखा था. मेरे घर में भारत की संस्कृति, भारत का दर्शनशास्त्र सभी सीखते हैं. मैंने पुरूषोत्तम श्रीराम और सीता की कहानी बहुत बार सुनी है. महागुरू कृष्ण और गौतम बुद्ध के बारे में भी मैंने काफ़ी कुछ जानकारी हासिल की है. झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और महात्मा गाँधी के संघर्षपूर्ण जीवन के बारे में मैंने दिलचस्पी से सिलसिलेवार पढ़ा है. और आज इस आज़ाद हिन्दुस्तान को देखकर बेहद खुश हूँ.
लेकिन अगर कभी मुझसे कोई कहता कि एक दिन मैं 'भारत' में रहते हुए ' हिंदी भाषा ' में अपने देश के बारे में लिखूँगी, तो यह मेरे लिए बेहद आश्चर्यजनक होता. आज जब मैं हिन्दुस्तान में हूँ तो मैं दूरस्थ अपने छोटे से देश 'आर्मेनिया' के बारे में लिखना चाहती हूँ; जो भारत की तरह बहुत पुराना है. उसकी संस्कृति हिंदुस्तान की संस्कृति से मिलती-जुलती है, जहाँ हिमालय की तरह पहाड़ी पठार हैं. उस देश के बारे में, जहाँ पर आर्मेनियन रहते हैं, मतलब 'आर्यन मनुष्य' जो एक ही समय में हिंदुस्तान के ' उत्तरी 'भाग में और' आर्मेनिया ' में आकर बस गए.
आर्मेनियन इतिहास बताता है कि आर्यन ' हाईक ' अपने परिवार के साथ यहाँ रहने आए, लेकिन दक्षिण का विशालकाय ' बेल ' नामक राक्षस हाइक को अपने वश में करना चाहता था, इसलिए हाइक और उनकी सेना ने राक्षस बेल के साथ युद्ध किया. विशालकाय राक्षस बेल के सामने हाइक की सेना, संख्या में बहुत कम थी, मगर हाइक और उनकी सेना की आज़ादी प्रिय आत्मा ने दुश्मन को हरा दिया.
यह कहानी बिल्कुल उसी तरह है जैसे हिंदुस्तान के महाकाव्य रामायण में उपस्थित चरित्र राम और रावण. इसी कहानी का एक और अटूट हिस्सा है गुरू और शिष्य परंपरा. जो मुझे ज़बानी याद है. "भारत, जहाँ गुरू और शिष्य परंपरा की रक्षा हुई और इस परंपरा की गरिमा को बनाए रखा." ऐसा लिखा मेरे महागुरू ' निकोलाए रेरिख ' ने. दुनिया भर में विख्यात रूसी चित्रकार और विचारक, जो अपनी पत्नी हेलेन के. रेरिख के साथ भारत में बस गए और यहाँ रहकर उन्होंने कई महत्वपूर्ण कार्य किए. भारत के लोग उनका बहुत आदर करते थे. पं. जवाहरलाल नेहरू, रविंद्रनाथ टैगोर जैसे कई महान व बड़े लोगों से उनकी मित्रता थी. निकोलाय रेरिख़ ने हिमालय के सप्त ऋषियों के साथ सहयोग करके दुनिया को 'अग्नि योग' यानी नीतिशास्त्र नाम का नया सिद्धांत दिया. ऐसी महिमा थी मेरे गुरू निकोलाए रेरिख़ की.
भगवान कृष्ण ने कहा ' गुरू वह इंसान है जो सबसे कठिन रास्ता चुनता है '. सप्त ऋषि भी ऐसा कहा करते थे ' अगर आप हमारे क़रीब आना चाहते हैं तो इस पृथ्वी पर आपका गुरू होना आवश्यक है. गुरू और शिष्य के बीच अटूट संबंध है, यही ब्रह्माण्ड की व्यवस्था है. ' इसी तरह और भी दिलचस्प कहानियाँ गुरू और शिष्य के संबंध को लेकर भरी पड़ी हैं. जिनके गहरे अर्थ हैं ऐसी ही एक छोटी सी कहानी है - नदी के तट पर बैठे किसी युवक को राह चलते व्यक्ति ने पूछा, ' यदि सूरज छिप जाए, तो अंधकार होगा, तब तुम क्या करोगे? युवक मुस्कुराया और बोला, "मेरे गुरू का साथ मेरे लिए बारह और सूर्य प्रकाशित करेगा." यह प्रकाश गुरू के साथ द्वारा ही संभव है. जो ' ज्ञान' के द्वारा किसी भी ' अंधकार ' को मिटाने में समर्थ है.
यह न तो कोई रोचक प्रेम कथा है न ही गूढ़ गंभीर सिद्धांत. भारत की गुरू शिष्य परंपरा, पश्चिम यूरोप में नहीं थी. वहाँ गुरू केवल अभ्यास देता है और शिष्य पढ़ता है. गुरू के साथ वहाँ आत्मिक संबंध बिल्कुल नहीं रहता है. यदि रहता भी है तो केवल सतही. यही कारण है कि पश्चिम की अध्यापन व्यवस्था आज भी एक गहरे ' संकट काल ' में है. वहाँ पुन: निर्माण किया जाता है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ ' धन ' की अधिक से अधिक प्राप्ति के लिए, जिसे वे अपनी सफलता मानते हैं, अन्यथा गुरू शिष्य के बीच वैसा कोई संबंध नहीं है जैसा भारत में है.
गुरू वह इंसान है, जो ज़िंदगी के सही रास्ते पर अपने शिष्य को लेकर जाता है, शिष्य उन्हीं की दिखायी राह को अपना बनाता है. बाईबिल में भी ज़िक्र है कि-' अगर तुम ही नहीं समझोगे, तो मैं कैसे तुम्हें समझाऊँ. ' यह समझ शिष्य अपने गुरू से प्राप्त करता है. संसार में अनेक ऐसे गुरू विचारक हुए, जिन्होंने अपने कार्यों द्वारा गुरू परंपरा को आगे बढ़ाया है मसलन पाईथागोरस, प्लेटो, अरस्तू ऐसे ही गुरू चिंतक विचारक रहे हैं. आर्मेनियन संस्कृति में माश्तोलस आर्मेनियन के पहले गुरू दावीद विजय थे जो पाँचवीं सदी में न्यायशास्त्र के संस्थापक थे, महान गुरू परंपरा में उनका नाम भी मुझे बार बार याद आता रहेगा.
दुनिया भर में प्रसिद्ध रूसी चित्रकार सव्यातोस्लाव रेरिख़ ने अपने पिता निकोलाय रेरिख़ के बारे में लिखा - "पुरानी किताबों में लिखा हुआ है कि वह इन्सान खुश है जो अपनी ज़िंदगी में बुद्धिमान व्यक्ति से मिलता है जो उसे छोटे और सीधे रास्ते से उसके लक्ष्य तक लेकर जाता है."
वैसे ही मैं अपनी जिंदगी के रास्ते में ऐसे बुद्धिमान व्यक्तियों से मिली मैं बहुत खुश हूँ और धन्यवाद देती हूँ अपने 'कर्म ' को कि मुझे गुरू' आशोत आगाबाबयान ' से मिलवाया वे रेरिख के शिष्य थे उन्होंने रूस और आर्मेनिया में कार्य किया, स्कूल खोले, वे रसायन, भौतिक विज्ञान के विद्वान तो थे ही, साथ ही शिक्षा को आगे बढ़ाने के लिए ' भारतीय न्यायशास्त्र ' की शास्त्रीय धारणाओं को अपनाकर प्रचार किया मैं बहुत खुश हूँ कि अपनी ज़िंदगी की शुरूआत में अपने गुरू से मिली 'गुरू' को आप भी सुन लीजिए.
आज मैं हिन्दुस्तान में हूँ. यहाँ कई गुरूजनों से मिलकर शिक्षा पा रही हूँ और यहाँ हिंदुस्तान में मैं अपने गुरू का इंतजार करती हूँ कि वे आर्मेनिया से यहाँ आएँगे और मेरे हिंदुस्तानी गुरूजनों से मिलकर 'सत्य-युग' को वापस लायेंगे और इस तरह से आर्मेनियन राष्ट्र शुरू हुआ तब से वहाँ का इतिहास लगातार लड़ते हुए चला आ रहा है मेरे शांतिप्रिय राष्ट्र को अपनी आज़ादी के लिए लड़ते रहना पड़ा है हमारे बड़े बड़े कई राज्य थे फिर 14वीं सदी में आर्मेनिया अंतिम राज्य हुआ 17वीं सदी में आर्मेनिया दो भागों में बाँटा गया आर्मेनिया का पूर्वी भाग ईरान में और पश्चिमी भाग तुर्की में चला गया. 1918 ई में आर्मेनिया संघर्ष के लंबे दौरे के बाद एक ' आज़ाद देश बना. हमने अपने देश को पहला गणतंत्र राज्य घोषित किया दूसरा गणतंत्र राज्य सोवियत संघ की सदस्यता में था और फिर 1991 ई में हमारा तीसरा गणतंत्र राज्य घोषित हुआ लेकिन 'राष्ट्र ' का चेहरा उसकी 'संस्कृति ' है महात्मा गांधी ने कहा था - "राष्ट्र की संस्कृति इंसान के दिल में बसती है और वह इंसान की आत्मा में रहती है."
आर्मेनियन संस्कृति का 'स्वर्णयुग' पाँचवी सदी में रहा है अब मेस्रोप माश्तोत्स ने आर्मेनियन 'वर्णमाला' की खोज की आर्मेनियन इतिहास लिखा मोन्सीस होरेनाप्सी थे. वे 'इतिहास पिता' कहे गये. पाँचवीं सदी से पंद्रहवी सदी तक आर्मेनिया सभी राष्ट्रों के ज्ञान समाज का केन्द्र रहा. आर्मेनिया पूर्व और पश्चिम के बीच स्थित है जो पूर्व और पश्चिम की संस्कृति को आपस में जोड़ता है. आर्मेनिया की राजधानी 'येरेवान ' है, जो संसार के पुराने शहरों में से एक है, जो ' रोम ' से भी ज़्यादा पुराना है. यह संसार में बहुत ही सुंदर शहर है. येरेवान को गुलाबी शहर पुकारा जाता है क्योंकि यह ज्वालामुखी के स्रोत से फूटे पत्थरों से बना है. येरेवान शिल्पता के स्मारक चिन्हों में अमीर है आर्मेनिअ की राष्ट्रीय 'भाषा ' आर्मेनियन है, जो हिन्दी यूरोपियन भाषाओं के परिवार की अलग शाखा है. भाषाविज्ञान की खोज हमें बताती है, कि आर्मेनियन भाषा, रूसी, हिंदी और संस्कृत एक ही जड़ 'प्रोतो भाषा' से उत्पन्न हैं. मेरे देश का राष्ट्रीय धर्म क्रिश्चियन है.
हिंदुस्तान और आर्मेनिया का संबंध की कहानी बहुत ही दिलचस्प है. यह बहुत पुराने समय से चला आ रहा 'संबंध' है भारत में 'आर्मेनियन समाज' सबसे पुराना और काफी बड़ा था. हिंदुस्तान में रहने वाले आर्मेनियन चुस्त तरीके से भारत के और अपने दूरस्थ देश के राजनैतिक और सांस्कृतिक जीवन में भाग ले रहे हैं. मद्रास में आर्मेनिया की पहली संविधान संरचना से जुड़ी पत्रिका ' आजादारार ' छापी गई मुगल शासक 'अकबर ' ने आगरा के केन्द्र में आर्मेनियन समाज को ज़मीन दी जहाँ 1562 में मुगल प्रशासन की सहायता से आर्मेनियन चर्च बना 1760 ई से 1764 ई तक. बंगाल में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ युद्ध में आर्मेनियन भी भाग ले रहे थे, और कहा जाता है कि हर विजय के बाद भारतीय झण्डे के साथ आर्मेनिया का झण्डा भी फहराया जाता था यही है ' आर्यन का देश आर्मेनिया '.
© 2009 Maane Makratchyaan; Licensee Argalaa Magazine.
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नाम: माने मक्रत्च्यान
उम्र: 35 वर्ष
जन्म स्थान: आर्मेनिया की राजधानी येरेवान
शिक्षा: दौलतराम महाविद्यालय में स्नातक, नई दिल्ली
सांस्कृतिक एवं कलात्मक गतिविधियाँ: आर्मेनिया की ' टार्च बियरर ऑफ़ यूथ ऑर्गेनाईजेशन ' की सदस्या हैं जिसे जर्मनी और ग्रीस में भी गाने के लिए आमंत्रित किया गया. इन्हें हिन्दुस्तान में आए हुए तीन चार महीने ही हुए हैं और इस दरम्यान इन्हें तमाम हिंदी की साहित्यिक एवं वाद विवाद प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत किया गया.
संपर्क: स्थानीय - मि. देवराज कंवल, डी/123, सेक्टर- 9 न्यू विजयनगर, गाज़ियाबाद-201001
स्थायी पता - बिल्डिंग न. -4, फ़्लैट्न.-9, जलालयान स्टीट, कसक, कोटायक्स रीज़न, रिपब्लिक ऑफ़ आर्मेनिया