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Yuva Pratibha

Rahul Singh Sisodia

अकेला चाँद

रात की आँखों से
कुछ खुलती नज़रें जा पड़ी हैं
आसमान के अनसुलझे बगीचे पर
अधखुली आँखों से ऊँघता सा
दिख रहा है, मारा-मारा सा
धुमला सा गया "अकेला चाँद"
निकट कुछ बिखरे तारे हैं
आपस में निपात ग्वारों से जलते
इस आसरे इसकी रात तो ना जाएगी
कुछ अर्ध दमकता ऊँघता सा
अपने दायरे को भी रौशनी
छिटक जाएगी, शरमाएगी!
यों जान पड़ता हैं
जंग खाया अर्धगोल है
और होता भी क्या पड़ा - पड़ा सा
धुमला सा गया "अकेला चाँद"

आखरांश प्रतिबिंब प्रतीत होता हैं
बाट जोहते वक़्त व्यतीत होता है
ऐसा बेजान सा दिखता है
मानो उजड़े घोसले की बसर हैं
हैं यूँ तो पड़ोसी अनगिनत
सबकी बस सलतनत पर नज़र है
वैराग्य पल सकता नहीं
जन्म दिया आख़िर मानव कोख ने
कर जाए ऐसा तो
दिखावे सा जा पड़ें सब शोक में
कितनी बंदिशें पाले दिल का हरा - हरा सा
धुमला सा गया "अकेला चाँद"
एक प्रज्वलित सूर्य की राह निकला
पर गर्म साँसों की थपेड़ों में
डूब सा गया उलझ सा गया
न कर हथेलियों को गर्म परिचितों की
खुद से ही झुलस सा गया
कितनी शब-ए-रात, कितनी ईद
कितने दशहरे कितनी दीवाली
अब तो तारीखें, भूल गया
अरमानों को दिल में धरा धरा सा
धुमला सा गया "अकेला चाँद".

धुली सुबह

धुली सुबह
गिरह खोल रही है
अंगड़ाइयों में
रौशनी के, बोल रही है
जा मिली हैं जमी से
पानी पे पर के
आँखें सबकी खोल रही है

धुली सुबह
रात की गर्द झाड़ के
परिंदों की फ़ौज़ निकली
वो देखो नामस्ती में
झूमती, पानी चूमती मछली
सब आते हैं, बातें बनाते हैं
मींचती आँखों से सबसे
कैसे हंस के बोल रही है

धुली सुबह
एक अरमान से फैली, आसमान पे
अपने घरौंदे बनाती है
शाम ढलते ही अपने परों से
जाते जाते रात बुलाती है
जीवन है आना जाना
सबसे घुलना, हँस बतियाना
ऐसे कितने मधुर ख्वाब
कानों में घोल रही है

धुली सुबह
अपने गिरह खोल रही है.

© 2009 Rahul Singh Sisodia; Licensee Argalaa Magazine.

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