अर्गला

इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका

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युवा प्रतिभा

तरनदीप कौर

अज़नबी

अपने ही शहर में अज़नबी हैं हम
भीड़ में भी चलते अकेले हैं हम
रास्तों पर तन्हाई का आलम रहता है,
आदमी ख़ुद आदमी से ज़ुदा रहता है
जाने-पहचाने चेहरे भी अब अनजान दिखाई पड़ते हैं
यह चौराहे जो अपने थे, पराए से लगते हैं

क्या ये शहर, वह शहर है
जो हमारी रग-रग में बसता था
जहाँ दिलों से होती थी बातें
मुस्कुराहटों से प्यार बँटता था
क्या ये शहर, वह शहर है
जहाँ गले लगकर हर ग़म भुला दिया जाता था
न क़ौम, न पैसा, इन्सान औ इंसानियत के तराज़ू में परखा जाता था
हाँ, इसी शहर की गलियों में सपनों की लड़ियाँ बुनी जाती थी
आज इसी शहर की गलियों में भीगी आँखों का बसेरा है
'डर और ' आक्रोश' में जी रहा हर चेहरा है

क्यों अपने ही शहर में अज़नबी हैं हम?
क्यों अपनों से दूर हुए जाते हैं?
क्यों सही रास्तों पर चलते-चलते
वही रास्ते भटक जाते हैं?

रास्तों पर तन्हाई का आलम रहता है
आदमी ख़ुद आदमी से ज़ुदा रहता है
अब तो भीड़ में खो जाने का मन करता है
सच, यह शहर अब अज़नबी सा लगता है

शम-ए-आज़ादी

कौन कहता है शम-ए-आज़ादी बुझ गई है,
हम में यह लौ अब भी जल रही है
इस लौ में जो जल गए, उनकी राख़ में आज भी रवानी है,
इस लौ में बसी भगत, आज़ाद जैसों की जवानी है

यह लौ सिर्फ़ एक लौ नहीं,
हज़ारों लाखों की कुर्बानी है
आशाओं से, तमन्नाओं से भरी,
बुझती हुई आँखों की कहानी है

कैसे मैं इसे बुझने दूँ?
कैसे दिल से निकाल दूँ!
हमें आज भी ज़रूरत है इसकी,
आज भी हर जगह बेबसी और लाचारी है

मैं भी सपना देखती हूँ,
एक ऐसे हसीन मुल्क़ का,
जिस मुल्क़ में तेरा-मेरा न हो, जैसे
यह लौ 'तेरी' 'मेरी' नहीं
यह लौ 'हमारी' है

कोई ज़मीन के लिए के लिए लड़ता है
कोई हक़ की बात करता है
कोई लड़ता है धर्म पर
कोई समाज से जूझता है

कोई बता दे मुझे,
मैं उस सरहद पर खड़े जवाँ को क्या जवाब दूँ
जो लड़ा है हम जैसों के लिए
जो इस टूटे बिखरे मुल्क़ पर मरता है.

© 2009 Tarandeep Kaur; Licensee Argalaa Magazine.

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