इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की पत्रिका
पथ पर चलता, चलता जाता,
चलते-चलते थक सा जाता,
थक कर फिर कुछ बैठ गया यूँ,
समय को रख कर भूल गया ज्यों.
चला सागर सब मन्थर गति से,
मैं न निकला अपनी रति से,
पूछा कि ये सब लोग हुआ क्या,
चलता पहिया रोक दिया क्यों
मैं बोला कि थका नहीं हूँ
क्या कहते हो? रुका नहीं हूँ.
राह मैं कुछ छोड़ चला था
उसकी बाट जोह रहा हूँ
तन भागा था, मन पीछे-पीछे
छोड़ गया वो दूर कहीं पर
उसके बिना सब सपने छूटे
माटी के जस बर्तन टूटे
आयेगा वो मुझसे मिलने,
मेरे उधड़े दिन-रात को सिलने
टाँका लगा कर गाँठ बाँधूगा
फिर हरदम बस साथ चलूँगा
थोड़ा धीमा, थोड़ा रुक-रुक
बोझ से जाऊँ शायद थोड़ा झुक भी
पर उसमें भी आनंद मिलेगा
जितना भी हो पूर्ण लगेगा.
एक नया गीत गाना चाहता हूँ
कुछ नया बनना चाहता हूँ
जो जीवन ने खींच दी हैं
मैं हर वो लकीर मिटाना चाहता हूँ
तन थका हुआ है, काया मैली
मन पर एक बोझिल शाम है फैली
रात से भी कुछ दूर चले जो
वो स्वप्न सजाना चाहता हूँ
कुछ नया बनना चाहता हूँ
बँधा हुआ हूँ, दास नहीं हूँ
सिसके, रह जाये, वो आस नहीं हूँ
भभके, बुझ जाये, वो आग नहीं हूँ
लेकिन फिर भी चुप हूँ क्यूँकि
आम हूँ मैं कुछ खास नहीं हूँ.
© 2009 Vivek Kumar Agarwal; Licensee Argalaa Magazine.
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नाम: विवेक कुमार अगरवाल
शिक्षा: एम. बी. ए. ( आई. आई. एम, अहमदाबाद); अभियांत्रिकी (एच. बी. टी. आई, कानपुर)
अनुभव: - इन्फ़ोसिस में 2000 - 03 तक कार्य; डी. एस. पी. मेरिल लिंच 2005; इम्डक्टिस (इ.) प्रा. लि. (2006 - 07)
सांस्कृतिक एवं कलात्मक गतिविधियाँ: 23 अँग्रज़ी कहानियों का सँग्रह "टु कैच ए स्माइल" नाम से प्रकाशित 2008; अभिनय थियेटर प्रोडकशन में "फ़िडलर ऑन द रूफ़" दिसम्बर. 2007; "एक जाम आंटियों के नाम" दिसं. 2008 दील्ली में मंचन.