शिल्पायन प्रकाशन / 2022 / 144 पृष्ठ / 350 रु.
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कविता की राजनीति और गणित के लिए जरूरी है गर कोई सूत्र बनाने वाला जानकार न हो तो न सधेगी कविता। उसी तरह इन्साफ़ की लड़ाई में अदालती दाँव-पेंच में दिग्गज़, माहिर दानिशमंद न हो तो जिद और जद्दोजहद से मुमकिन नहीं कि जीत हो, ये तय है कि शिकस्त पक्की समझो। फिर वो योद्धा जो इन नग्मों में सियासत और गणित का सूत्र तय करे, समीकरणों और नीतियों का फलसफे बिठाए। कवि की रूह में दाखिल नीतिशास्त्री, माहिर कारीगर जो हुआ वो चारागर कवि के अंदर एक सारथि सा जीस्त-ए-जाँ हुआ-संग-संग रहा। इस अदालत दाँव-पेंच के माहिर सारथि ने भरोसा दिया दूर है दिल्ली तो क्या? पा लेंगे मंजिल। राहें इश्क़ और जंग में मिल ही जाती हैं। इंतज़ार में शामो-सुबह की न परवाह, न कोई फ़िक्र। जिसे सारथी मिल जाय उसे कौन भला मात दे सके- दुनिया के महान से महान युद्ध ऐसे ही लड़े गये। इस यकीनी को बढ़त मिली, नज़ूमों के घोड़े भी तेज़ दौड़े, खूब लम्बी पींगे भरे। यहीं से एक-साथ राजनीति का अर्थतन्त्र और लोकतंत्र का गणित के किले की घेरे बंदी की गई।

‘अनिल पुष्कर की कविताएँ पाठकों के भीतर हलचल मचाएंगी और इस प्रतिसंसार का सामना कराएंगी कि यहाँ सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। इससे यह भी संकेत मिलता है कि आदमी इस लड़ाई में खुद नहीं गया बल्कि उसके लिए ऐसी ही परिस्थितियाँ बना दी गई हैं जिनमें लड़ाई की ओर चलने के अलावा और कोई रास्ता नही है। यह कुछ ऐसी प्रतीतियाँ हैं जो पाठक को ये सोचने के लिए मजबूर करती हैं कि क्या वो आज के इस हलचल भरे संसार का हिस्सा है या उससे बाहर।’
– गंगाप्रसाद विमल

‘अनिल पुष्कर का सफरनामा ईश्वर और विज्ञान के बीच अपना इतिहास रचता दीखता है। जब वे मामूली आदमी की बात करते हैं तो पूरी दुनिया एक हो जाती है। इस नुगालते में भी नहीं रहना है कि पूरी दुनिया के ईश्वर और पूरी दुनिया के मनुष्य एक हैं। मनुष्यों के शरीर की बनावट एक जैसी है लेकिन विचार अलग-अलग हैं। सब मनुष्यों में एक मनुष्य अलग होना जानता है। इसी द्वंद्व से अनिल पुष्कर की कविताएँ उपजती हैं।’
– लीलाधर जगूड़ी

‘कविता सिर्फ शब्दों से नहीं लिखी जाती है। उसके लिए एक वैज्ञानिक और गणितज्ञ की भी दृष्टि एक कवि के पास होना चाहिए, तभी वह यथार्थ को सम्पूर्णता से समझ सकता है। अनिल पुष्कर की कविताएँ वैज्ञानिक संवेदना और चेतना रखने वाले कवि की कविताएँ हैं। समकालीन युवा कविता में यह विरल और दुर्लभ है। सम्भवतः यह हिन्दी की युवा कविता में पहली बार हो रहा है कि घिसे पिटे भावुकतापूर्ण विषयों की जगह अनूठे विषय अनिल पुष्कर की कविता में व्यक्त हुए हैं।’
– आग्नेय

‘साहित्य के हल्के में अनिल पुष्कर जानी पहचानी शख्सियत है। इधर सक्रिय कवियों के साथ इनकी उपस्थिति एकदम नया आयाम देती है। प्रथम दृष्टया ये कविताएँ समाज, राजनीति और साहित्य के रिश्तों की पड़ताल करते दिखती है, पर जब आप इसमें धंसते जाते है, तो इसके अन्य, अनेक पक्ष उजागर होने लगते है। साहित्य का समाजशास्त्रीय विश्लेषण करती अनिल पुष्कर की कविताएँ, नई इबारत, कहन का नया अंदाज, कतई अलहदा बिंब, गढ़ती, महानता के कथित नुस्खों, टोटकों को बेनकाब करती है। ये कविताएँ कवि का हलफनामा है, भले ही पहले किसी बड़े कवि ने यह कहा हो, पर उस हलकनामे पर युवा कवि बिरादरी की ओर से अनिल पुष्कर के हस्ताक्षर है यह संग्रह।’
– प्रतापराव कदम