तानाशाहों के वारिस

लोकोदय प्रकाशन / 2020 / 128 पृष्ठ / 150 रु.
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आवरण: कुँवर रवीन्द्र

कवि सारी  कविताओं से निकलते लड़ते, जूझते, झड़पते, हुड़क देते कवि को मिल गया एक रास्ता और उसने तय किया कि वह आखिरकार तानाशाहों के वारिस का पंचनामा करके रहेगा और उसकी एक बानगी, साक्ष्य एक तानाशाह का पंचनामा के तौर पर आपको यहाँ मिलेगी जो इस दुनिया में इन्हीं जंगलों के भीतर गया कब्जा करने, जो इसी दुनिया में इन्हीं शहरों में आया काबिज होने और वो है आज भी, अभी इसी वक्त. ये कविताएँ वहाँ तक ले जाकर के आपको एक उस धुरी, उस त्रिज्या और उस परिधि, उस हाशिये से घसीट लायेंगी फिर यहाँ, ठीक यहीं, जहाँ मैं ढूँढ़ रहा था कि तानाशाह कहाँ रहता है, तानाशाह को कैसे मालूम हो कि मैं भी इसी दुनिया में रहता हूँ और तानाशाह कब डरेगा कि ये दुनिया उसे खत्म भी कर सकती है. जबकि तानाशाह और मेरे बीच में एक रिश्ता अब भी बना हुआ है कि मैं अब भी खोज रहा हूँ और तानाशाह अब भी बना हुआ है और कवि लगातार इस बात की तरफ संकेत कर रहा है कि तानाशाह कहीं गया नहीं उसे खत्म नहीं किया जा सकता क्यूंकि जब तक तुम जिन्दा हो तानाशाह जिन्दा रहेगा, और यही संदेश कविताओं के मूल में है.

‘ये कविताएं कविता की भीड़ में अलग रंग की पताका जैसी दूर से दिख जाती हैं। अपने रंग से ये कविता के आकाश को न सिर्फ सुशोभित करती हैं बल्कि अपने खेमे की शिनाख्त के लिए एक बड़ी सहूलियत भी उपलब्ध कराती हैं। अनिल पुष्कर ने अनेक स्तरों में शब्दों को नया अर्थ नया रंग और नया प्रभाव दिया है। अनिल की कविता बिना अपना प्रभाव डाले आपके सामने से जाने वाली नहीं। अनिल पुष्कर जी की काव्य भूमि को देखते हुए यह साफ-साफ कहा जा सकता है कि वे कविता के चतुर किसान हैं और उनकी खेती बारी में रंगों की विविधता है।’
– बोधिसत्व