उपन्यास

अर्गला

आवरण: अन्तरा श्रीवास्तव

शिल्पायन प्रकाशन | 2023 | 206 पृष्ठ | 395 रु.
ऑनलाइन उपलब्ध नहीं

अर्गला न तो कोई भाषा है और न ही रंग। यह अभिव्यक्ति का एक माध्यम है जो सूर्योदय के रंगों को अपनाती है और सूर्यास्त के रंगों में रहती है। वह खुद को वान गाग की तूलिका और रंग में देखती है और उसकी कल्पना के दर्पण में अपने रूप की प्रशंसा करती है। बंध के रेखाचित्रों से लेकर उसके जीवन के कैनवास तक, अर्गला में यौवन की छाप है। प्रेम के जिन रंगों और कल्पनाओं को वह वान गाग और पिकासो के चित्रों में अछूता पाती है, प्रेम के जिन रंगों को वान गाग और कल्पना की सुरीली तूलिका पूरा नहीं कर पाई, अर्गला उन कल्पनाओं और रंगों को बंध में देखती है। लेकिन बंध के रंग नाजुक हैं, कल्पना में सच्चाई की खरोंचें हैं और अर्गला यह जानते हुए भी चाहती है कि उसकी नाजुक कल्पनाएं बंध के बंधन को अपने भीतर समाहित कर लें. बंध की कल्पना में, अर्गला सत्य की कड़वाहट और कांटेदार भावनाओं को प्यार की मीठी डंठल में बदलना चाहता है। अर्गला वान गाग और पिकासो की अधूरी कल्पना और बंध के जीवन में अधूरे रंगों से पूर्ण होने की लालसा से भरी है। अर्गला बंध को जीना चाहती है, बंध की भाषा के प्यार और रंगों के प्यार के साथ। अर्गला जीवित बंध को अपने भीतर और उसे अपने भीतर देखती है।

‘बहुश्रुत लेखक अनिल पुष्कर का सद्यः-प्रकाशित उपन्यास अर्गला एक नयी तरावट वाली लिखावट है। यह स्त्री की देह का चटपटा विमर्श नहीं है, न ही अलगाव और जुड़ाव का कोई सस्ता ताना-बाना है। अनिल पुष्कर लीक से अलग हटकर, शब्दों के जरिये जिस साधना में लीन दीखते हैं, वह स्त्री मन को भांप सकने का अप्रतिम प्रयास साधारण नहीं है। लेखक की ईमानदार साफगोई इस उपन्यास की जीवंतता में रंग भर देती है। उपन्यास की कथावस्तु, उसके पात्र, पात्रों के कथोपकथन एक साधारण विवरण के साथ मौजूद नहीं हैं बल्कि लेखक की गंभीर प्रयोगधर्मी मानसिक सृष्टि उसके मंसूबे को अलहदा होने के रास्ते तय करती है। ‘अर्गला’ हिंदुस्तान की ज़मीन पर रचा गया एक ऐसा उपन्यास है जिसे हिंदी साहित्य का अभिनव प्रयोग कहने में गुरेज नहीं। कुछ भी कहिये, सच तो यही है कि मनुष्य की मुक्ति प्रेम से और प्रेम में है।’
– अमरेंद्र किशोर

‘अनिल पुष्कर का उपन्यास ‘अर्गला’ देखें तो वो भटकते हुए बंध की कथा है जो कि चित्रकार है लेकिन प्रेम की तलाश में है। उसकी वैचारिक उलझन है इसलिए वो एक दिशा नहीं ले पाता। वहीं अर्गला नायिका है जो कि एक दिशा में चलना चाहती है। यह उपन्यास इसलिए पढ़ना जरूरी है ताकि आज की युवा पीढ़ी को गहरे रूप में समझा सके। यह उपन्यास वैचारिकता जगाता है। ‘
– भारत दोसी

आलोचना

हरिवंशराय बच्चन की अनुवाद दृष्टि

आवरण: अनिल पुष्कर

रूबी प्रेस | 2014 | 260 पृष्ठ | 488 रु.
अमेज़न

रूबी प्रेस द्वारा प्रकाशित हरिवंशराय बच्चन के जीवन और लेखन पर एक साहित्यिक आलोचना और अध्ययन। यह पुस्तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में डॉ. रणजीत साहा की देखरेख में अनिल पुश्कर के पीएचडी अध्ययन के दौरान किए गए शोध पर आधारित है। इसमें हरिवंशराय बच्चन के उमर खैय्याम के मधुशाला के अनुवाद कार्यों, शेक्सपियर के नाटकों जैसे हेमलेट ओथेलो आदि और येट्स की सामूहिक कविताओं का व्यापक अध्ययन है।



‘यह किताब बहुत बुद्धिमत्ता, व्यावसायिकता और कड़ी मेहनत से लिखी गई है। इसमें आने वाले शोधकर्ताओं के लिए ऐसे सूत्र शामिल हैं जो उन्हें मदद करेंगे और प्रेरित करेंगे। लेखक ने विषय का व्यवस्थित रूप से अध्ययन किया है और प्रासंगिक निष्कर्ष पर पहुंचे हैं।’
– अजित कुमार

‘पुस्तक का विषय एकदम नया है। लेखक ने प्रत्येक अनूदित कृति की मूल से तुलना करते हुए बच्चन द्वारा किए गए अनुवाद से सहमत न होते हुए उसकी विशद सकारण व्याख्या भी की है, जैसे ख़ैयाम की रूबाइयों में एक-एक रुबाई की अलग-अलग व्याख्या कर अनुवाद पर विचार करते हुए अपनी सहमति या असहमति प्रकट की है। इसमें बच्चन की अनुवाद संबंधी धारणाएं, हिंदी में अनुवाद की श्रेष्ठता का आग्रह, अनुवाद विद्या की रचनात्मक स्वायत्तता और पाठ प्रसंग और विधा के अनुरूप अनुवाद कर्म पर विस्तार से विचार किया गया है, जो अनुवादकों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है।’
– महेंद्र राजा जैन