





सदानीरा है प्यार

सर्व भाषा ट्रस्ट प्रकाशन / 2021 / 325 पृष्ठ / 350 रु.
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सम्पादन: सुमन
नई पीढ़ी के लिए पुरानी पीढ़ी के द्वारा बताई गई प्रेम परक परिभाषाएँ दिनोंदिन अर्थहीन और भावहीन होती गई लेकिन फिर भी प्रेम को अपने तई बूझने की ललक और प्रेम में डूबने की चाहना कम न हुई वरन उत्तरोत्तर प्रगाढ़ होती गई। कबीर काल से या कहें कि उनसे भी पूर्व से इस ‘ढाई आखर’ का आकर्षण कम नहीं हुआ। सभी ने अपनी-अपनी तरह से इसे समझा और समझाया। इस पुस्तक में भी इसी ‘ढाई आखर’ के धरम और मरम को सहेजने की कोशिश की गई है। यहाँ पचहत्तर सर्जकों का हृदय सहज, निर्बाध और अकुंठ रूप से उद्घाटित है। निःसंदेह इस भाँति का उद्घाटन प्रेम में ही सम्भव है और इस प्रकार का विशद संचयन स्नेहिल सहयोग व सौहार्द से।

‘प्रेम कविताओं के ये चयन बताते हैं कि हर देश काल और परिस्थिति में प्रेमी पैदा होते रहेंगे, प्रेम की वसुंधरा सदैव प्रणय के बीज को अपनी कामनाओं में बसाए रहेगी, कविताएं लिखी जाती रहेंगी और हिंसा, बर्बरता, नस्ल भेद, रंगभेद और हर तरह की संकीर्णताओं के पार प्रेम कविताओं की वसुंधरा सदैव अपनी अभिव्यक्ति के लिए समुत्सुक रहेगी. आज के युवा प्रेम को किस दृष्टि से देखते हैं, और किस तरह की उम्दा प्रेम कविताएं इनदिनों भी लिखी जा रही हैं, उनको समझने और पढ़ने के लिए ये संग्रह उपयोगी हैं.’
– ओम निश्चल
इरावती

प्रकाशन / 2021
अतिथि सम्पादक: गणेश गनी
कविता के इरावती संसार में पंद्रह हिमाचली लेखकों के अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, गोवा व केरल तक के कवि-कवयित्रियों को पढ़ने में आनंद की अनुभूति के साथ-साथ विषयों की तहों में उगते समुद्र, नदियां, मानचित्र, इतिहास, शहर, ऋतुएं, फुटपाथ तो हैं, साथ में दाल-रोटी के प्रश्न, नारी विमर्श की संवेदना और समाज के अतिक्रमण भी रेखांकित होते हैं। अपने दर्द के पन्नों की हाजिरी में इरावती के संपादक, राजेंद्र राजन उस एहसास की बूंदों से समुद्र के भीतर डुबकी लगा रहे हैं, जो उनके भीतर की हर आहट की तरह है। वह अतिथि संपादक के रूप में गणेश गनी का परिचय भी कराते हैं। कवियों के समूह को संबोधित करती इरावती रफ्तार पकड़ती है, लेकिन अपनी आरंभिक टिप्पणी के जोश में अतिथि संपादक प्रकाशन की मर्यादाओं और साहित्यिक शिष्टाचार से बाहर अगर किसी को ‘अरे दुष्टो’, ‘बदमाशो’ या ‘दलालो’ कह रहे हैं, तो सारा अंक अहंकारी जरूर हो जाता है। कम से कम इरावती से ही बहना सीख लेते, जो हर दिन जन्म लेकर भी न गाद से और न ही अपने प्रलाप से किसी को कुछ कहती है।

‘अनिल पुष्कर की कवितायें बहुत शानदार हैं और बौद्धिक स्तर पर बहुत कसरत माँगती हैं. जो कविता मुझे सबसे पहले पसंद आयी वो है पहली कविता – ‘एक दुनिया जो बदल रही है’ – जिसके सात भाग हैं और फुटनोट मैं उन्होंने चीज़ों को स्पष्ट किया है.’
– गणेश गनी
‘जैसे फलक पर कविता खुद चल कर आई हो, बिना किसी सिफारिश के घूंघट हटाने का फैसला लिए हुए। इरावती की तरह, नदी में नाव की तरह। एक साथ पचहत्तर कवि, एक अनूठे संगम पर और सारे देश की कविताएं वहीं कहीं इरावती के तट पर नहा रही हैं। इरावती के भीतर पहली बार कई नदियां उफान पर हैं। कुछ पर्वतीय पत्थरों से टकराने जैसी, कुछ उछलती-कूदतीं, कुछ पाने के बहाव सरीखी, कुछ गहरे पानी के भीतर और कुछ अपनी मस्ती में परिवेश को छूती हुईं कविताएं अपना संसार रच रही हैं। न्यायाधीश के कर्म में कविता को न्याय दिलाते अनिल पुष्कर अपने भीतर तक पिघलते हैं।’
– निर्मल असो
छठा युवा द्वादश

बोधि प्रकाशन / 2019 / 212 पृष्ठ / 200 रु.
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सम्पादन: निरंजन श्रोत्रिय
महत्वपूर्ण कवि निरंजन श्रोत्रिय पिछले कई वर्षों से ‘समावर्तन’ पत्रिका के माध्यम से एक जरूरी काम रहे हैं-अल्पज्ञात या अज्ञात प्रतिभाशाली कवियों को सामने लाने का बल्कि यही उस पत्रिका का सबसे बड़ा योगदान माना जाना चाहिए। निरंजन श्रोत्रिय फिर इनकी कविताओं को पुस्तकाकार रूप में लाकर पत्रिका के पुराने अंकों में ये सिमट कर न रह जाएँ, इस प्रयास में भी लगे रहे हैं। ‘छठा युवा द्वादश’, ‘समावर्तन’ के ‘रेखांकित’ स्तम्भ में प्रकाशित कविताओं का संकलन है जिसमें अनिल पुष्कर सहित 12 कवि – शम्भु यादव, शाहनाज़ इमरानी, शंकरानन्द, संतोष श्रेयांस, मिथिलेश कुमार राय, राकेश रोहित, सतीश नूतन, अदनान कफील, ‘दरवेश’, सुजाता, रश्मि भारद्वाज, एवं गौरव पांडेय शामिल हैं.

‘युवा कवि अनिल पुष्कर राजनीतिक रूप से बेहद जागरूक कवि हैं। उनकी कविता में हमारे समय का सबसे खौफनाक मंजर सामने आता है। यह एक ऐसा मंजर है, जिसमें खिलाफत की जमीन पर अब खड़ा रहने की गुंजाइश नहीं बची है, संघर्ष की जमीन के फलने-फूलने के अवसर छिनते जा रहे हैं। राष्ट्र और मजहब का नाम लेकर लोगों की इच्छाओं-सपनों को कुचला जा रहा है। इधर हम हैं कि लोकतंत्र की इस हत्या से बेपरवाह हैं। धार्मिक मगर बुनियादी रूप से सांप्रदायिक लोगों का जो चरित्र-चित्रण उन्होंने किया है, वैसा कविता में अन्यत्र कम देखने को मिलता है। पुष्कर एक ऐसी भाषा गढ़ने में सक्षम हैं, जो प्रायः सीधी और तीखी है। उसमें कहीं-कहीं आशा के कुछ संकेत भी हैं मगर उसके पीछे भी शासक वर्ग के प्रति कटुता और विरोध का भाव है। एक तरह से यह कवि का एक बुनियादी स्टैंड है। वह इस पीढ़ी के शायद सबसे अधिक राजनीतिक कवि हैं।’
– विष्णु नागर

‘कवि की संवेदना का रेंज वैश्विक है। वह अंतरराष्ट्रीय स्तर के आर्थिक यंत्रों एवं दु:रभिसंधियों से परिचित है। समझ में आने तक कैसे मनुष्य मौत के तहखानों के अंधेरे तक जा पहुंचता है, कवि इसे जानता है।’ समय अपनी परिभाषा बदल देता है। कविता में कवि क्रूर नरसंहार को केन्द्र में रखते हुए सत्ताधीशों के दुराशय और मंशा की पड़ताल करता है। वे शब्दों और परिभाषाओं के पीछे छुपे उस सत्य को उजागर करते हैं. युवा कवि की इस वेदना की जड़ में एक सजग राजनीतिक चेतना भी है जो यह भलीभांति समझती है कि इस दौर में अंतत: मरना किसे है। युवा कवि अपनी कविता में एक सजग इतिहासबोध का पता देते हुए उस फर्क को भी बयां करता है जब सत्ता के खेल को इतिहास और जनता के इतिहास को खेल करार दिया जाता है। सत्ता की निरंकुश क्रूरता और जनता की विवश तालियों का यह द्वन्द्व युवा कवि की कविता को एक नया तेवर प्रदान करती है।’
– निरंजन श्रोत्रिय
बिम्ब प्रतिबिम्ब

बिम्ब प्रतिबिम्ब प्रकाशन / 2020
सम्पादन: अनिल पाण्डेय

‘भीड़ से अलग होना मुश्किल होता है। बंधी-बंधाई ढाँचे को तोड़ना पड़ता है| कई आँखों में चुभना होता है तो कई आँखों में आँखें डालकर बात रखना होता है। यह सच है कि ऐसा जो करता है वह हाशिये पर धकेला जाता है| तो ऐसे युवा धकेले जाने के लिए तैयार हैं कविता की शर्त पर| इन युवाओं में एक हैं अनिल पुष्कर| संघर्षों के खुरदरी जमीन पर चलते हुए वैचारिकता को पुष्ट करने में सक्रिय यह कवि इधर सन्यास की राह पर है| कविता से लेकर लम्बी कविता तक का सफर तय कर चुके हैं। जब व्यक्ति संन्यास की राह पर होता है तो चिंतन का स्वस्थ रूप लाता है। अनिल पुष्कर की कविताओं में ओज है, विचार है, सूक्ति है, समझ है। और है संघर्ष|’
– अनिल पाण्डेय
प्रतिपक्ष का पक्ष

लोकोदय प्रकाशन / 2016 / 196 पृष्ठ / 100 रु.
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सम्पादन: उमाशंकर सिंह परमार
प्रतिपक्ष केवल जवाबदेही नहीं है बल्कि निरन्तर प्रयत्नशील और प्रयोगशील रहने की रचनात्मक प्रक्रिया है। प्रतिपक्ष का अपना पक्ष है जैसे कि पक्ष का अपना पक्ष होता है। प्रतिपक्ष का पक्ष लोक है। जिसकी पक्षधरता सचेतन आन्दोलन होते रहने का बोध कराती है। यह आन्दोलन उस पक्ष के विरुद्ध सक्रिय होता है जिसका हम प्रतिपक्ष लेकर उपस्थित हैं। प्रतिपक्ष एक प्रेरणा है एक कवि लेखक की रचना प्रक्रिया का मूल हेतु है, सामाजिक- राजनैतिक न्याय व समता के लिए कठोर जीवन संघर्षों में झुलस रहे बहुसंख्यक समुदायों के लिए जीवन आकांक्षाओं का एक जटिल प्रश्न है, वर्गीय विभेदों की बढ़ती खाई के कारण व्याप्त भयानक विघटन और मानवीय संकटों का मानवतापूर्ण प्रतिरोध है। भूमंडलीकरण के इस दौर में प्रतिरोध आज की मानवीय जरूरत है। इस बदली हुई विश्व व्यवस्था का प्रतिरोध भले ही आम जनता ने न किया हो पर लेखन में इसका प्रतिरोध आरम्भ से ही रहा है। वामदलों ने बाकायदा अभियान चलाकर इसका विरोध किया है। संगठन से जुड़े साहित्यकारों की रचनाएँ अधिकांशतः प्रतिरोध के पक्ष में रहीं हैं। कविता में प्रतिरोध का स्वर व्यापक था। ज्यों-ज्यों आर्थिक उदारीकरण के नकारात्मक प्रभाव दिखते गए त्यों-त्यों प्रतिरोध भी बढ़ता गया। 2010 के बाद तो हिन्दी कविता का मुख्य स्वर प्रतिरोध रहा। आज भी कविता का पक्ष प्रतिरोध का है।

‘अनिल पुष्कर की कविताओं में यथार्थ सामान्य बिम्बों में नहीं व्यक्त होता। कवि अपने वैचारिक आग्रहों से उसे जटिल यथार्थ का स्वरुप प्रदान कर देता है। इनकी कविताओं में गहरी प्रतीकात्मकता पायी जाती है जिससे कविता में प्रयुक्त बिम्ब अभिव्यक्ति की कलात्मक ऊँचाइयों तक पहुँच जाते हैं।’
– उमाशंकर सिंह परमार