लोकोदय प्रकाशन / 2019 / 120 पृष्ठ / 170 रु.
लोकोदय नव लेखन सम्मान से सम्मानित कृति
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‘राजधानी’ संग्रह की कविताएँ किसी मुल्क और उसकी राजधानी तक सीमित नहीं है, जिसमें सिर्फ हिन्दुस्तान की ही छवियाँ देखी जा सकें बल्कि दुनिया भर की तमाम राजधानियों के भीतर तहज़ीब और जिन्दगी जीने के जो बीज डाले गये हैं, वह संस्कृति, राजनीति और लोक हितों की रस्साकसी का ही नतीजा नहीं है बल्कि हमारे आपके भीतर भी ऐसी कई-कई राजधानियाँ बनती रही हैं। ये राजधानियाँ बनाने में न जाने कितना वक्त गुजरा, कितनी पुश्तें मिट गई, कितनी कुर्बानियाँ गई, कितने ख्वाबों के कारवाँ बने। कितने ख़्वाब लम्हें भर ठहरे और बिखर गये। हालात कभी बद से बदतर हुए और कभी मनमुआफिक भी रहे। यह संग्रह उन तमाम राजधानियों की माकूल तस्वीरें अपने भीतर समेटे हुए है। समता, स्वतन्त्रता, अधिकार और कर्तव्यों के बीच हमने अपनी राजधानियों को कभी इस मुकाम तक लाने की हिमाकत या जरूरत ही नहीं समझी कि वह बने और अपने बाहर की राजधानियों में शुमार हो सके।

‘युवा कवि अनिल पुष्कर की ये कविताएँ निरंकुश सत्ता के आततायी चेहरे और दुरभिसंधियों को बहुत बेबाकी से बेनकाब करती हैं। कवि को अपने समकाल, समाज और राजनीति की गहरी समझ है। वे शब्दों और परिभाषाओं के पीछे छुपे उस सत्य को उजागर करते हैं जिसका मोहक व्याकरण सत्ताधीश रचते हैं। युवा कवि अनिल पुष्कर की ये कविताएँ गहरे अवसाद लेकिन अंततः प्रतिरोध की कविताएँ जो हमें गहरी – नशीली-मीठी नींद से उठाकर झकझोरना चाहती हैं। एक कवि के रूप में उनकी चाह केवल यह नहीं है कि जनता को उसका वास्तविक हक मिले बल्कि यह भी कि सत्तामद अपने किए का दण्ड भी भोगे।’
– निरंजन श्रोत्रिय

‘अनिल पुष्कर की कविता प्रतिरोध की आँच से तपता लावा है। कविता न तो निरपेक्ष है और न ही गैरजिम्मेदार, वह सापेक्ष है और उसका द्वन्द ही कविता का प्रस्थान बिन्दु है। ऐसे जोखिम के वक्त राजधानी की काव्य भाषा अपना दायित्व भली प्रकार निर्वहन करती है। ये कविताएँ ऐलान करती हैं कि आज की प्रायोजित हिंसक गतिविधियों और इस हिंसा को वैध ठहराने वाली ताकतवर संस्थाओं का प्रतिरोध ही मनुष्यता को बचा सकता है। राजधानी की ये कविताएँ अवसाद और पीड़ा के कठिन समय में मानवीय ऊर्जा के सकारात्मक व्यय की कविताएँ हैं।’
– उमाशंकर सिंह परमार

‘ये प्रतिरोध की कविताएँ हैं। राजनीति के एक रूप के विरोध में राजनीति के दूसरे रूप को पेश करने की कविताएँ नहीं हैं ये! पीड़ित जन की तरफ से बहस करती हैं ये कविताएँ! मुक्तिबोध और धूमिल मानो पूर्वज हैं इन कविताओं के! हालाँकि कलात्मक रूप से बहुत अंतर है इनमें! आदिवासियों की चिंता इनमें कई तरह से प्रकट हुई है। अनिल पुष्कर की काव्य-भाषा के बारे में यही कहा जा सकता है कि इसमें खुरदरापन की अधिकता है। इसे खूबी के रूप में देखा जा सकता है। ‘
– कमलेश वर्मा

‘अनिल पुष्कर समकालीन हिंदी कविता के कुछ चौकन्ने और धीर-गंभीर कवियों में हैं। उनकी बातें उनके कथ्य में, लाक्षणिक, सांकेतिक उपादानों में बखूबी दिखलाई पड़ता है। भीतर के कोलाहल को बाहर कविता में, कितनी सादगी से रखा जा सकता है यह उनके काव्य शिल्प के विशिष्ट अवयवों में देखी जा सकती है । एक परिपक्व कवि जब अपनी बातों को लय और तुक के ताल में रखता है तो उसके भीतर की खलबली और उससे उत्पन्न गत्यात्मक ऊर्जा, आपको ऊर्जस्वित किए बगैर नहीं छोड़ती; तो यह उसके परिपक्वता को प्रमाणित करता है। संग्रह के इस एक कविता में जो ताक़त है, जो हौसला है, अपने समय के चुनौतियों से जो मुख़ालफ़त है वह विचारणींय है।’
– इंद्र राठौर