सुन रहा है कोई

रुद्रादित्य प्रकाशन / 2022 / 118 पृष्ठ / 150 रु.
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आवरण: राज भगत

‘सुन रहा है कोई’ के भीतर एक ऐसा वितान है, जब आप खुद दो पांवों से चलते-चलते पाताल और ज़न्नत खोजते खोजते इस चीज को साफतौर से भाँप सकते हैं कि कौन सुन रहा है, किसे सुना जा रहा है, कैसे तमाम अंदरूनी सन्नाटों, चीखों और चिंताओं को सुनने की अजन्मी पद्धतियाँ हर लम्हा कुदरत की हैरतअंगेज़ कोख में बनती बिगड़ती, आती जाती, बाहर भीतर, भीतर बाहर होती रही हैं। कहाँ हैं वे, कहाँ गये वे, जो घुप्प अंधेरों में भी उजालों के किस्से सुनाते फिरते आये थे अब तलक भर रात और कहाँ गये वे, जो अंधियारे वक्त में इन्हीं किस्सों से नई रौशनी के फूटने के इन्तजार में ख़्वाबों के भीतर जागते भागते बिताई हैं सदियाँ, कभी कंठ रुंधे, कभी कंठ आलाप उठे, कभी कंठ राग-विराग कहकशां से भर गये और कभी कंठों ने मिलकर न जाने कितनी ध्वनियों में भयावह समय को भगाने के लिए, डराने वाली गूंजों, आक्रामक हमलों, हिंसक वारदातों, खूनी पंजों, जबड़ों और पैने दांतों की जहरीली खरोंचों के खिलाफ दर्दमंद शोर को एकसाथ साधा था। तब तो यकीनन हाथों में न कोई उजाला था न ही कोई अंगार न कोई हथियार। तब भी तो सुनी गई आखिरी चीख हर उस मरने वाली देह की, जिन्हें कुदरत ने जिंदगी सौंपी थीं और वो किसी दबे पाँव तेज़ रफ़्तार हमलावर जानवरों का शिकार हो गई। कभी झुण्ड में तो कभी एकटक द्रोण बुद्धि के बरगलाने वाली चालों के हवाले। कहीं तो होंगी रुदन की दास्तानें और कुफ्र की कब्र में दफ़न सिसकियाँ।

‘अनिल पुष्कर की ये कविताएं अपने शिल्प और कथ्य, दोनों स्तरों पर राजनीतिक कविताएं हैं। प्रतिकार और आक्रोश इनकी थीमलाइन है। इन्हें पढ़ने का अनुभव एक लम्बी बहस में पड़ने-उलझने का अनुभव है, जो एक सार्थक और जनपक्षधर कविकर्म की निशानी भी है। अनिल की भाषा कविता की इधर की भाषा से अलग बहुत अटपटी भाषा है. इस भाषा में अतिकथन साफ़ लक्षित होता है पर इसमें लगातार बहुत कुछ घटता भी है। इसमें जो अतिरिक्त सपाटबयानी है वह एक हद तक आकर रिपोर्ट की भाषा में बदलती जाती हैं। पत्रकारिता और कविता के सम्बन्धों पर रघुवीर सहाय के जमाने में बहुत बात होती थी, अब नहीं होती। इन कविताओं को पढ़ते हुए मैंने उस दौर की स्मृतियों को भी जागते पाया है। संक्षेप में कहूं तो ये हमलावर कविताएं हैं।’
– शिरीष मौर्य